Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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रुक्ति है, और न ऐसा क्रम ही है जिससे कहीं भी प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना की जाय । लिपिकर्ताको असावधानीसे या अन्य किसी कारणवश 'तेतीसुत्तर' पाठ निम्त हो गया है। नोच कापलेपार २० इयोन माथाओंमें ही पूर्ण होती है।
आरम्भमें आचार्यने प्रायश्चित्त, छेद, मल-हरण, पाप-नाशन, शुद्धि, पुण्य, पवित्र, पाबन-ये सब प्रायश्चित्तके मामान्तर बताये हैं। प्रायश्चित्तके द्वारा चित्तादिकी शुद्धि करके आत्म-विकासको प्राप्त किया जाता है । जो आत्मविकास अथवा मुक्तिको प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अपने दोषों-अपराधोंपर कड़ी दष्टि रखने की आवश्यकता है। किस दोष या अपराधके लिए कौन-सा दण्ड या प्रायश्चित्त विहित है-यही इस ग्रन्थका वर्ण्य-विषय है। मुनि, आर्यिका, श्रावक और धाविकारूप चतुःसंघ और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्ररूप चतुर्विध वर्णके सभी स्त्री-पुरुषोंको लक्ष्यकर ग्रन्थ लिखा गया है। दोषोंके प्रकारों और उनके आगमादि विहित तपश्चरणादिरूप संशोधनोंका इसमें निर्देश और संकेत किया है। यह अनेक आचार्योंके उपदेशको अधिगत करके जीत और कल्प व्यवहारादि प्राचीन शास्त्रोंके आधारपर निर्मित है। आत्म-शुद्धिका साधन प्रायश्चित्त हो है । इस प्रायश्चित्तसे ही आत्मशुद्धि सम्भव है । आरम्भको ४० गाथाओंमें मूल गुणोंके पश्चात् प्रथम महाव्रतका वर्णन आया है । ग्रन्थका प्रथम मूल गुणाधिकार है और द्वितीय महाव्रताधिकार । इस महाव्रताधिकारके अन्तर्गत प्रथम प्रकरणमें प्रथम महावतका निरूपण किया है। द्वितीय और तृतीय महावताधिकार नामक तृतीय प्रकरण में ४१-४६ गाथाएं हैं। इन छ: गाथाओंमें द्वितीय और तृतोय महाव्रतका वर्णन किया है तथा इन व्रतोंमें होनेवाले दोषों और उनकी प्रायश्चित्त विधियोंका कथन आया है । चतुर्थ प्रकरण चतुर्थ महाव्रताधिकार नामका है । इसमें ४७-६० गाथाएं हैं ! इस व्रतम लगनेवाले दोषों और उन दोषोंको दूर करने हेतु उपवासादि प्रायश्चित्तोका वर्णन है। पञ्चम प्रकरण पञ्चम महाप्रताधिकार नामका है। इसमें ६१से लेकर ६८ तक गाथाएं हैं। परिग्रह परिमाण महाव्रत में प्रमाद या अज्ञानतापूर्वक लगनेवाले दोषं और उनकी प्रायश्चित्तविधियोंका वर्णन आया है । षष्ठप्रकरण रात्रि-भोजन त्याग नामक षष्ठवताधिकार आया है । इसमें ६९-७५ गाथाएं हैं। स्वप्नमें रात्रि-भोजन करना, असमय में भोजन करना, रोगावस्था या उपसविस्थामें बेठकर भोजन करना आदि दोषोंके प्रायश्चितोंका वर्णन आया है । सप्तम प्रकरणसे लेकर एकादश प्रकरण तक ७६१०३ गाथाएं हैं। इनमें पञ्च समितियों में लगने वाले दोष और उनमें विहित प्रायश्चित्तोंका कथन किया है । द्वादश इन्द्रिय निरोधाधिकारमें एक हो २२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा