Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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और उसका रचयिता इन्द्रनन्दिसे भिन्न कोई अन्य इन्द्रनन्दि है। मुख्तार साहबने लिखा है-"मेरी रायमें यह छेद-पिण्ड जो अपनी रचना शैली आदि परसे एक व्यवस्थित स्वतन्त्र ग्रन्थ मालूम होता है। यदि उक्त इन्द्रनन्दि संहितामें भी पाया जाता है तो उसमें उसी तरह अपनाया गया है जिस तरह कि १७वीं शताब्दोकी बनी हुई भद्रबाहुसंहितामें "भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र' नामके एक प्राचीन ग्रन्थको अपनाया गया है और जिस तरह उसके उक्त प्रकार अपनाये जानेसे वह १७वीं शताब्दीका अन्य नहीं हो जाता, उसी तरह छेद-पिण्डके इन्द्रनन्दिसंहितामें समाविष्ट हो जानेमासे यह वि० की १३वीं शताब्दीकी अथवा उसके बादकी कृति नहीं हो जाता । वास्तवमें छेद-पिण्ड संहिता शास्त्रकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने विषयका एक बिल्कुल स्वतन्त्र ग्रन्थ है। यह बात उसके साहित्यको आद्योपान्त गौरसे पढ़नेपर भली प्रकार स्पष्ट हो जाती है। उसके अन्त में गाथा संख्या तथा श्लोक संख्याका दिया जाना और उसका ग्रन्थ परिमाण प्रकट करना भी इसी बातको पुष्ट करता है। यदि वह मूलतः और वस्तुतः संहिताका एक अंग होता तो ग्रन्थ परिमाण उसी तक सीमित न रहकर सारी संहिताका ग्रन्थ परिमाण होता और वह संहिताके हो अन्तमें रहता, न कि उसके किसी अंगविशेषके अनन्तर ।"
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारके उपर्युक्त कथनसे स्पष्ट है कि छेद-पिण्ड एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसका समावेश इन्द्रनन्दिसंहितामें किया गया है। इसको साहित्यिक प्रौढ़ता, गम्भीरता और विषय-व्यवस्था भी इसे स्वतन्त्र ग्रन्थ सिद्ध करती है। जीवशास्त्र और कल्पव्यवहार जैसे प्राचीन ग्रन्थोंका उल्लेख होनेसे छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दिकी प्राचीनता स्वत: सिद्ध हो जाती है । थी आचार्य जुगलकिशोरजीने अनुमान किया था कि छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि मल्लिषेणप्रशस्तिमें निर्दिष्ट इन्द्रनन्दि है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके पद्यमें कहा गया है--
भावेऽ छेदपिंडं जो एवं ईदणदिणिरचिदं । लोइयलोउत्तरिए बवहारे होइ सो कुसलो । इय इंदणदिजोइंदविरइयं सज्मणाण मलहरणं ।
विहियं तं भत्तीए सम्मतपसत्तचित्तण ॥ उपर्युक्त गाथाओंसे मिलता जुलता भाव मल्लिषेण प्रशस्तिके निम्नलिखित पद्यमें पाया जाता है१. पुरातन जैन वाक्य सूची [प्रथम भाग], सम्पादक : आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार,
वीर सेवा मन्दिर, सन् १९५०, प्रस्तावना पृ० १०८ । २. छेदपिण्ड, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक २८, गापा-३६१, ३६२ (१)। २२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा