Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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स्वर्गसे धुत हो जम्य द्वीपके अगर विदेह क्षेत्रमें पृथ्वीपत्ति होनेका वर्णन आया है। कमठका जीय भोलके रूपमें उत्पन्न हुआ है। मरुभूतिका जीव चक्रायुध सिरके श्वेत बालोंको देखकर संसान्से विरक्त हो तपश्चर्या करने लगा। पूर्व जम्मके वैरभावके कारण कमठका जीव भीलने चक्रायुधपर वाणप्रहार किया, जिससे मनि चकाच ध्यानपूर्वक मरण कर देयकमें देवरूपमें उत्पन्न हुए और भीलका जीच नरकम उत्पन्न हुआ।
छठी सन्धिमें १८ कड़वक हैं। चक्राका जोब वेयकसे च्युत होकर पूर्व विदेह क्षेत्रके विजय देशके मजाके यहाँ कनकप्रभके रूपमें उत्पन्न हुआ। कनकप्रभने बयस्क होकर अपने राज्यपी समृद्धि की। उसके धन-धान्यसे सदा समृद्ध ३२ हजार प्रदेश, ९६ करोड ग्राभ, ५९ हजार खान, स्वर्ण और चाँदीके तोरणोंसे युक्त ८४ लाख श्रेष्ठ पुर, ८४ हजार बरबट, सुखेट और द्रोणमुख थे । उसके मन और पवनकी गति चाले. १८ बारोड़ श्रेष्ठ घोड़े, ८४ लाख मदोन्मत्त हाथी एवं समस्त शत्रु दलका नाश करने वाले उतने ही उत्तम रथ थे। इस राजाके ८४ लाख अंगरक्षक, ती[सौ साठ रसोईआ एवं उबदन और सम्मर्दन करने वाले २०० अनुचर थे। ९६ हजार रानियाँ और तीन करोड़ उत्तम कृषक थे। चतुरंगिणी सेनासे घिरा हुआ वह राजा षट्स्खण्डकी विजयके लिए चल पड़ा। विजयके पश्चात् वह वापस लौटा और आनन्दपूर्वक साम्राज्य करने लगा। उसका अपार ऐश्वयं था । आचार्यने इस सन्धिम बट तुओका वर्णन करते हुए कनकप्रभके भोगविलासका चित्रण किया है । एक दिन कनकप्रभने यशोधर मुनिके दर्शन किये और उनसे कसिद्धान्तका उपदेश सुना । कनकप्रभने दीक्षा ग्रहण की।
सप्तम सन्धिमें १३ कडवक हैं। आरम्भमें मनिदीक्षाको प्रशंसा की गयी है। अनन्तर १२ अंग और १४ पूर्वोका वर्णन आया है। मुनि कनकप्रभने अंग और पूर्वोके अध्ययनके पश्चात पूर्वांगों में आयो हई वस्तुओंकी संख्याका अध्ययन किया है । इस सन्दर्भ में तीन हजार नौ सौ पाहडोंके अध्ययनका कथन आया है। कनकप्रभमुनिने कठोर तपश्चरण कर आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त की, साथ ही जलचरण, तन्तुचरण, श्रेणिचरण और जंघाचरण ऋद्धियोंके साथ सवांवधि, मनःपर्ययज्ञान आदि प्राप्त किये। विकिया ऋद्धि एवं अक्षीण महानस ऋद्धि भी प्राप्त हुई। कनकप्रभने क्षीरवन में प्रवेश कर गिरिशिखरपर आरूढ़ हो, धर्मध्यान प्रारम्भ किया । इसी समय कमठके जीबने, जो कि सिंहके रूपमें वहाँ निवास करता था, मुनिपर आक्रमण किया और उसने मुनिका प्राणान्त कर दिया । कनकप्रभमुनि समताभावपूर्वक भरण कर वैजयन्त नामक स्वर्गमें देव हुए ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २१३