Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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लिए सद्गुण-सम्पन्न दृढमूर्ति मुनि भी आये । राजा आनन्द जिनमहोत्सव करता हुआ निवास करने लगा । एक दिन अपने श्याम केशोंमें एक श्वेत केशको देखकर उसे विरक्ति हो गयी और अपने पुत्रको राज्य देकर वह वनमें तपश्चरण करने चला गया। मुनि आनन्द तपस्याम लीन था कि कमठके जीव सिंहने देखा । पूर्वजन्मके बैरका स्मरण कर उसने मुनिपर आक्रमण किया । शान्ति और ममाधिपूर्वक मरण करनेसे आनत स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ । छ: मास आयुके शेष रहने पर वाराणसी नगरीमें रत्नोंकी वर्षा होने लगी। महाराज विश्वसेनकी महिषी ब्रह्मदत्ताने सोलह स्वप्न देखे। प्रातः पतिसे स्वप्नोंका निवेदन किया । पतिने उन स्वप्नोंका फल त्रिलोकीनाथ तीर्थकरका जन्म बतलाया ।
नवम सर्ग । ब्रह्मदत्ताने जिनेन्द्रको जन्म दिया ! चदनिका के देवनन्मोत्सव सम्पन्न करने आये । इन्द्राणी प्रसूति गृहमें गयी और मायामयी बालक माताके पास सुलाकर जिनेन्द्रको ले आयो और उस बालकको इन्द्रको दे दिया। इन्द्रने सुमेरु पर्वतपर जन्माभिषेक सम्पन्न किया और पाश्वनाथ नामकरण किया । पार्श्वनाथका बाल्यकाल बीतने लगा | जब वे युवा हुए तो एक दिन एक अनुचरने आकर निवेदन किया कि एक साधु वनमें पंचाग्नि तप कर रहा है । पार्श्वनायने अवधिज्ञानसे जाना कि वह कमठका ही जीव मनुष्य पर्याय पाकर कुसप कर रहा है। के उस तपस्वीके पास पहुंचे और कहा कि तुम्हारी यह तपस्या व्यर्थ है। इस हिसक तपसे फर्म-निजंग नहीं हो सकती है। तुम जिस लकड़ीको जला रहे हो उसमें नाग-नागिन जल रहे हैं। अतः लकड़ीको फाड़कर नाग-नागिन निकाले गये । पाचनायने उन्हें णमोकार मन्त्र सुनाया, जिससे उन नाग-नागिनने घरणन्द्र और पद्मावतीके रूपमें जन्म ग्रहण किया । घरमेन्द्र-पदमावतीने आकर पार्श्वनाथकी पूजा की।
- दगमसर्ग। पार्श्वनाथकी सेवामें अनेक राजा कन्या-रत्न लेकर आये । महागज विश्वसेनने उनसे निवेदन किया कि विवाह कर गृहस्थजीवन व्यतीत कीजिए। पार्श्वनाथने विवाह करनेसे इनकार कर दिया और वे विरक्त हो गये । लोकान्तिक देवोंने आकर उनके वैराग्यको उत्पत्तिपर पुष्पवृष्टि की। पार्श्वनाथने पंचमुष्टि लोच कर दीक्षा ग्रहण की। उन्हें दूसरे ही क्षण मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। उपवासके पश्चात् जुल्ममेदनगरके राजा धर्मादयके यहां पाश्वनाथने पायसान्तका आहार ग्रहण किया । वनमें आकर प्रतिमा-योगमें अवस्थित हो गये । कमठका जीव भतानन्द देव आकाश मार्गसे जा रहा था। तीर्थकरके प्रभावसे विमान रुक गया। वह विमान स्कनेके कारणकी तलाश कर हो रहा ९६ : तीपंकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा