Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है। इस काव्यमें उपमालंकारकी योजना ४/५४, ५/९७, ५।२९, ८१५२, ९।२७, ९।३४, २०५९, ९।२३. १०।६, १०१११, १२११, १११५१, १११७१, १२।२०, १२।३४,४४, ४११८, ४११११ एवं ७५० में पायो जाती है। उत्प्रेक्षा रा१०७, म्हापक २४१, अर्थान्तरन्यास १११५, अतिशयोक्ति ८१९८, उदाहरण ९।६, दृष्टान्त ११३, विभावना १२५, तुल्ययोगिता ११५४, असंगति श८, सन्देश ६१०५, भ्रान्तिमान ३१७३, समासोमित श११४, काव्यलिङ्ग ३२४, बिशेपोक्ति १०५, श्लोष ३।२६, अनुप्रास ४/५२ और यमककी ३१२७, ३।३६ एवं ३१५९. में योजना पायी जाती है ।
भाव एवं रसका निरूपण करने वाली प्रसादगुणसम्पन्न, सरल भाषामें भावानुसार शब्दावलीका प्रयोग कर वादिराजने पार्श्वनाथचरितमें सरस शैलीका प्रयास किया है। काव्यके सम्बन्धमें कविकी स्वयं मान्यता है
अल्पसारापि मालेव स्फुरन्नायकसद्गुणा 1
कण्ठभूषणतां याति कवीनां काव्यपद्धतिः ।। १।१५ । अल्पसमास और श्रेष्ठ-गुण-पूर्ण नायक ही काव्यके उत्तम होनेकर कारण होता है। वर्ण-योजना, शब्द-गठन, अलङ्कार-प्रयोग, भाव-सम्पत्ति एवं उक्तिवैचित्र्य प्रभृति शैलीको समस्त तत्व इनके काव्यमें पाये जाते हैं। कविने शैलीको सरस और आकर्षक बनानेके लिए मूक्ति-वाक्योंका भी प्रयोग किया है । ऋतुवर्णन-प्रसंगमें लम्बे समासोंका भी प्रयोग आया है। अत: पंचम, षष्ठ और आष्टम सर्गोको वेदी और गौड़ीके मध्यकी पाञ्चालीमें निबद्ध माना जा सकता है । सामान्यतः इस काव्यको वैदर्भी शैलीका काव्य मानना उपयुक्त है।
कविने अपने पूर्ववर्ती आचार्योंका भी स्मरण किया है । १११६ में गद्धपिच्छ, १२१७--१९ में समन्तभद्र, ११२० में अकलङ्क, श२१ में वादिसिंह, श२२ में सन्मति, ११३ में जिनसेन, १।२४ में अनन्तकीति, श२५ में पाल्यकोति, २२६ में धनञ्जय, १२७ में अनन्तवीर्य, १।२८ में विद्यानन्द, श२९ में विशेषवादि
और. ११३० में बोरनन्दीका स्मरण आया। यशोधरचरित
यशोधरचरित हिंसाका दोष और अहिंसाका प्रभाव दिखलानेके लिये बहुत लोकप्रिय रहा है। कवि वादिराजने इसी लोकप्रिय कथानकको लेकर प्रस्तुत काव्यकी रचना की है । इस काव्यमें चार सर्ग हैं । प्रथम सर्गमें ६२ गद्य, द्वितीय में ७५, तृतीयमें ८३ और चतुर्थमें ७४ पद्य हैं। यशोधरचरित्रकी कथावस्तु यशस्तिलकचम्पूको कथावस्तु ही है। अतएव कथावस्तुको पुनरावृत्त करना निरर्थक है।
१०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा