Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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करनेवाला 'पञ्चविंशतिका'का निम्नलिखित पद्य है
दुष्प्रापं बहदुःखराशिरशुचिस्तोकायुरल्पज्ञताज्ञातप्रान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे । अस्मिन्नेव तपस्ततः शिवपदं तव साक्षात्सुखं
सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि तपः कुन्निरो निर्मलम् ।। अर्थात् दुष्प्राप, अशुचि, बहुदुःखराशि, अल्पज्ञताज्ञात, प्रान्तदिन और स्ताकाथु मनुष्यीयमें है। मसाय तर मुस्तिकी प्राप्तिके लिए तप करना आवश्यक है और यह तप मनुष्यपर्यायमें हो सम्भव है।
इस पद्य के अतिरिक्त पानन्दि-पञ्चविंशतिके ९११८, १२४२, १।७६, ११११८, ३१४४ और ३५१ क्रमशः आत्मानुशासनके पद्य २३९,२४०, १२५, १५, १३०, ३४ और ७९ पद्योंसे प्रभावित हैं। अतएव 'पञ्चविंशति' के रचयिता वि० की १०वीं शतीके पूर्व नहीं हो सकते।
पद्यनन्दि-पंञ्चविंशत्तिपर सोमदेवसूरिके 'यशस्तिलक'का भी प्रभाव पाया जाता है । पद्मनन्दिका श्लोक निम्न प्रकार है
त्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छति ।
समस्तशुक्लापि सुवर्णविग्रहा वमत्रमात: कृतचित्तचेष्टिता ॥ ठीक इससे मिलता-जुलता यह 'यशस्तिलक'का भी श्लोक हैएक पदं बहुपदापि ददासि तुष्टा बर्णात्मिकापि च करोषि न वर्णभाजम् । सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोष न पश्यति तदस्तु तवैष दीपः ।।
उक्त दोनों पद्योंमें सरस्वतीकी स्तुति की गयी है । स्तुति करनेको एक ही प्रणाली है। इसी प्रकार चविध दानके फल सूचक पद्य भी समानरूपमें उपलब्ध होते हैं। पद्यनन्दि-पम्नवंशतिमें गहस्थके पड़ावश्यकोंका निर्देश "देवपूजागरुपास्ती" (६७) आदि रूपमें किया गया है । यह श्लोक यशस्तिलक उत्तरार्द्ध पृ० ४१४ में प्राप्त होता है। यशस्तिलकमें पुजाके स्थानपर सेवापाठ प्राप्त होता है। पद्मनन्दि-पञ्चविंशति (२०१०)में मनिके लिए शाकपिण्डमात्रके दाताको अनन्तपुण्यभाग बतलाया है। यही भाव यशस्तिलक (उत्तरार्द्ध पृ० ४०८)मं व्यक्त किया है। इसी प्रकार आत्मसिद्धिके लिए 'भुतानन्वयनात्' पद्यका आशय भी दोनों अन्थों में तुल्य हैं। इससे यह निश्चय होता है कि पद्म
१. पदमनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, पद्म १२:२१ । २. पमनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, इलोक १५।१३। ३. यशस्तिलकचम्यू उत्तरार्घ, पृ० ४०१ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२७