Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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४. व्याख्यानकी पुष्टिके हेतु उद्धरणोंका प्रस्तुतीकरण । ५. पारिभाषिक शब्दोंका स्पष्टीकरण ।
यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, जिनसे व्यवहार और निश्चय समन्वित इनकी व्याया-शैलीका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकेमा-- “यो स्फटिकमणिविगायो निर्मलोपि जपापुष्पादिरक्तकृष्णश्वंतोपाधिवशेन रक्तकृष्णश्चेत वर्णो भवति, तथाऽयं जीवः स्वभावन पद्धव कस्नम्पोपि गाताहारण गृहस्थापेक्षया यथासम्भवं सरागसम्यवत्वपूर्वकदान-गूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया तु मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणत: गुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वाविति-प्रमाद-नापाय-योगपञ्चप्रत्ययापाशुभोपयोगेनागभो विज्ञेयः । निश्चयरत्नत्रयात्मकशद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्य इति । किंच जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते मध्यमप्रतिपत्त्या मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण कथिताः । अथ प्राभूतशास्त्र तान्यन्त्र गणस्थानानि संक्षेपेण शुभाशुभशुद्धोपयोगम्पेण कथितानि।" । अर्थात्, जिम प्रकार स्फटिकमणिका पत्थर निर्मल होनेपर भी जपापुष्पादि रक्त, कृष्ण, श्वेत उपाधिके वासे लाल, काला, श्वेत, रंगरूप परिणमन करता है, उसी तरह यह जीव स्वभावसे शुद्ध-बुद्ध-कस्वभाव होनेपर भी व्यवहारनयाकी अपेक्षा गृहस्थक रागर्माहत सम्यक्त्वपूर्वक दान-पूजा आदि शुभ कायोको करता है तथा मनिधर्म के मूलगुण और उत्तग्गुणोंका अच्छी तरह पालन करता हुआ परिणामांको शुभ करता है। मिथ्यादर्शन भाव अचिरतिभाव, प्रमादभाव, कपायभाव और मन-वचन-काययोगोंके हलम-चलनरूप-भाव ऐसे पाँच कारणरूप अशुभोपयोगमें बर्तन करता हुआ अशुभ जानने योग्य है । तथा निश्चय रत्नत्रय मय शुद्ध उपयोगसे परिणमन करता हुआ शुद्ध जानने योग्य है। आसय यह है कि सिद्धान्त में जीबके असंन्यातलोकमात्र परिणाम मध्यम वर्णनको अपेक्षा मिथ्यादर्शन आदि चौदह गुणस्थानरूपसे कहे गये हैं। इस प्रवचनमार-प्राभृतशास्त्रमें उन्हीं गुणस्थानाको संक्षेपसे शुभ-अशुभ तथा शुद्धोपयोगरूप कहा गया है । इस प्रकार जयसेनाचार्यने व्यवहार और निश्चय दोना ही नयोंका आलम्बन कर कुन्दकुन्दके तीनों प्राभृन-ग्रन्थोंकी व्याख्या को है।
पद्मप्रभ मलधारिदेव आचार्य कुन्दकुन्दनः नियमसारकी तात्पर्यवृनि नामक टीकाके रचयिता पद्मप्रभ मलधारिदेव हैं। इन्होंने अपनेको सुकविजन पयोगमित्र, पञ्चेन्द्रि१. प्रवचनसार, ९वीं गाथाकी रीका ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १४५
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