Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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करने लगे । इस जाति आर्यिका
के क्षपके लिए यह जानाति नामक पुस्तक ध्यानअध्ययनशाली, तप और शास्त्र के निधान, तत्त्वोंके ज्ञाता और रागादिरिपुओंको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगीको लिखाकर दी
वैशाख सुदी दशमी शुक्रवार वि०सं० १२८४ को गोमण्डल (काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल ( भट्टारक ) सहस्रकीतिके लिए पं० केसरीके पुत्र बीसलने लिखी ।
प्रशस्ति के अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ में लिपिकर्ताओंकी दो प्रशस्तियाँ है । प्रथम प्रशस्ति में तो लिपिकर्ताका नाम और लिपि करने का समय नहीं दिया है । केवल लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय और जिन्हें प्रति भेंट की गयी है उनका नाम दिया है। श्री प्रेमोजीका अनुमान है कि आर्यिका जाहिणीने जिस लेखकसे उक्त प्रति लिखायी होगी उसका नाम और समय भी अन्तमें अवश्य दिया गया होगा । परन्तु दूसरे लेखकने उक्त पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम एवं समय अन्त में जोड़ दिया होगा । इस दूसरी प्रतिके लेखक पण्डित केसरीके पुत्र बीसल हैं और उन्होंने गोमण्डलमें सहस्रकीर्तिके लिए इसे लिखा था, जबकि पहली प्रति नपुरी में शुभचन्द्र योगी के लिए लिखाकर दी गयी थी ।
दुसरो प्रतिका लेखनकाल वि० १२८४ है, तब पहली प्रतिका इससे पहले लेखनकाल रहा होगा । श्री प्रेमीजीने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि प्रतिका लेखनस्थान नृपुरी ग्वालियरका नरवर सम्भव है । नृपुरसे नरपुर, नरपुरसे नरउर और नरउरसे नरवर का होना सम्भव है । अतः पाटनकी इस प्रतिके आधार पर ज्ञानार्णवकी रचना वि०सं० १२८४के पूर्व अवश्य हुई है । अतएव सोमदेव के पश्चात् और हेमचन्द्रके पूर्व शुभचन्द्रका समय होना चाहिये । हेमचन्द्रके योगशास्त्रपर ज्ञानार्णवका पर्याप्त प्रभाव दिखलायी पड़ता है। कई पद्य तो प्रायः ज्यों-के-त्यों मिलते-जुलते हैं, दो चार शब्दों में ही भिन्नता है । अतएव हमारा अनुमान है कि शुभचन्द्रका समय वि०सं० की ११वीं शतो होना चाहिये | इससे भोज और मुजकी समकालीनता भी घटित हो जाती है । रचना - परिचय
शुभचन्द्रकी एकमात्र रचना "ज्ञानार्णव" उपलब्ध है । महाकाव्यके समान लेखकने इसके विषयका भी सर्गों में विभाजन किया है । समस्त ग्रन्थ ४२ सर्गों में विभक्त है | ग्रन्थरचयिताने अन्त में इस ग्रन्थका महत्त्व अंकित किया हैजिनपत्तिसूत्रात्सारमुद्धृत्य किञ्चित् स्वमतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम् ।
इति
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५३