Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गायका भी पद्य मिलता है। अत: शुभचन्द्रका समय अमतचन्द्राचार्यके पश्चात् है।
'ज्ञानार्णव'की एक प्राचीन प्रति पाटणके 'रवेतरवस' नामक श्वेताम्बर जैन भण्डारमें विद्यमान है, जिसका लेखनकाल वैशाख शुक्ला दशमी वि०सं० १९९४ है। श्री नाथूरामजी प्रेमीने इस पाण्डुलिपिकी प्रशस्तिको उद्धत किया है। प्रशस्तिकी महत्त्वपूर्ण पंक्तियां निम्नलिखित हैं
"इत्ति ज्ञानाचे योगनदीपाधिकारे पंडिताचार्यश्रीशभचन्द्रविरचिते मोक्षप्रकरणम् । अस्यां श्रीमनपूर्या श्रीमदर्हदेवचरणयामलचंचरीक: सुजनजनहृदयपरमानन्दवन्दलीकन्दः श्रीमाथूरान्वयसमुद्रचन्द्रायमानो भन्यात्मा परमश्रावकः श्रीनेमिचन्द्रो नामा भूतः । तस्याखिल-विज्ञानकलाकौशल-शालिनी सती पतिव्रतादिगुणगणालंकारभूषितशरीरा निजमनोवृत्तिरिवाव्यभिचारिणी स्वर्णानाम धर्मपत्नी संजाता 1 अथ तयोः समासादितधर्मार्थकामफलयो: स्वकुलकुमुदवनचन्द्रलेखा निजवंश-वैजयन्ती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि-नाम-पुत्रिका समुत्पन्ना ।"
रागादिनम्लाय शुभचन्द्राय नाभिने ।
लिखाप्य पुस्तकं दमिदं ज्ञानार्णवाभिधम् ।। "सं० १२८४ बर्षे बैशाखसुदी १० शुक्र गोमंडले दिगम्बरराजकुल-सहस्रकोत्तिः तस्यार्थे पं० केशरिसुतवीसलेन लिखितमिति' ।
अर्थात् नृपुरीमें अरहन्त भगवान्के चरण-कमलोंका भ्रमर, सज्जनोंके हृदयको आनन्द देनेवाला, माथुरसंघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भव्यात्मा श्रीनेमचन्द्रनामक परमश्रावक हुआ, जिसकी पत्नीका नाम स्वर्णा था, जो अखिल विज्ञान-कलाओंमें कुशल, सती, पातिव्रत्यादि गुणोंसे भूषित और परम शीलवती थी। धर्म, अर्थ और कामको सेवन करनेवाले इन दोनोंके जाहिणी नामक पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप कुमुदवनकी चन्द्ररेखा, निजबंशको वैजयन्ती और सर्वलक्षणासे सुशोभित थी।
इसके पश्चात् इस दम्पत्तिके राम और लक्ष्मणके समान गोकर्ण और श्रीचन्द्र नाम दो सुन्दर गुणी और भव्य पुत्र उत्पन्न हुए । अनन्तर नेमिचन्द्रकी वह पुत्री जाहिणी संसारकी विचित्रता और नरजन्मको निष्फलताको जानकर आत्मशुद्धिके लिए प्रेरित हुई। उसने मुनियोंके चरणोंके निकट आर्यिकाके व्रत ग्रहण कर लिए और मनकी शुद्धिसे अखण्डित रत्नत्रयको स्वीकार किया। उस विरक्ताने युवावस्थामें ऐसा कठिन तपश्चरण किया, जिससे सभी उसकी प्रशंसा १. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ० ४४३-४४४ पर उद्धत । १५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा