Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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विबुधमुनिमनीषाम्भोधिचन्द्रायमाणं ___चरतु भुवि विभूत्यै यावदद्रीन्द्र चन्द्र: ।। ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चिते को वेत्ति तत्त्वत्तः ।
यज्ज्ञानात्तीयते भव्यर्दुस्तरोऽपि भवार्णवः' ॥ प्रथम सर्गमें ४९ पद्य हैं और महाकब्धिके समान सज्जन-प्रशसा की भयों है। आरम्भके सात पद्य नमस्कारात्मक हैं। ८वें पद्यमें सत्पुरुषोंकी वाणीकी प्रशंसा की है...
प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च।
सम्यकतत्त्वोपदेशाय सत्तां सूक्तिः प्रवर्तते ।। अर्थात् सत्पुरुषोंकी उत्तम वाणी जीवोंके प्रकृष्टज्ञान, विवेक, हित, प्रशमता और सम्यक प्रकारसे तत्त्वके उपदेश देने में समर्थ होती है। इसी वाणीसे भेदविज्ञान, ध्यान, तप आदिकी सिद्धि होती है। कविने समन्तभद्र, भट्टाकलंक आदिका स्मरण भी किया है। उसने कुशास्त्रके पढ़नेका निषेध किया है और बतलाया है कि मिथ्यात्वका सम्बद्धन करनेवाला शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य नहीं है। जिस शास्त्रके अध्ययन करनेसे राग-द्वेष, मोह, क्षीण हो, वही शास्त्र उपादेय है। यह आत्मा महामोहसे कलंकी और मलीन है। अत: जिससे यह शुद्ध हो, वही अपना हित है, वही अपना घर है, वहीं परम ज्योतिका प्रकाश है। इस जगतको भयानक कालरूपी सर्पसे शंकित देखकर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरणके समूहको छोड़ निजस्वरूपके ध्यानमें लवलीन हो जानेवाले धन्य हैं। जिन्होंने इन्द्रियोंकी अधीनताका त्याग कर दिया है, वे ही वास्तविक सुखको प्राप्त होते हैं। संसार-भ्रमणसे विभ्रान्त और मोहरूपी निद्रासे ग्रस्त व्यक्ति अपने बास्तविक ज्ञानको भूल जाता है । जो सत्पुरुष ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म, मिथ्याज्ञान तथा कषायके विषसे मच्छित नहीं हैं, वे ही शान्तभावको प्राप्त होते हैं। अनादिकालसे लगी हुई यह कर्म-कालिमा बड़े पुरुषार्थसे दूर की जाती है। अत: यह कर्मकालुष्य जिस उपाय द्वारा दूर किया जा सके, उस उपायका अवलम्बन लेना चाहिये । मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है तथा साधन-सामग्री और भी दुर्लभ है, अतएव विचारशील व्यक्तिको रत्नत्रय और रागद्वेषाभावको प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये।
द्वितीय सर्गमें १२ भावनाओंका वर्णन आया है। इसमें ७ + ४७ + १९ + १७ + ११ + १२ + १३ +९+ १२ +९+ २३ + ७ + १३ + ३ = २०३ पद्य हैं। १. ज्ञानार्णव, रायचन्द्र शास्त्रमाला, द्वितीय संस्करण, ४२१८७-८८ । २. वहीं, १३८ । १५४ : तीर्घकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा