Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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बोधिदुर्लभ भावना में १३ पद्य है । इस भावनामें बोधि - रत्नत्रयकी प्राप्ति दुर्लभ बतायी है । अपने निज स्वरूपको जान लेनेपर ही मोक्षकी प्राप्ति सुलभ होती है । वस्तुतः बोधिको प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । बताया है— सुलर्भामह समस्तं वस्तुजातं जगत्यामुरगसुरनरेन्द्रः प्रार्थितं चाधिपत्यम् । कुलवलसुभगत्वोद्दामरामादि चान्यत् किमुत तदिदमेकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ॥
उपसंहारमें इन भावनाओंके अभ्यासका महत्त्व बतलाया गया है ।
तृतीय सर्ग में ध्यानका स्वरूप वर्णित है । इस सर्ग में ३६ पद्य हैं। इस संसारमें मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना काकतालीयन्यायके समान दुर्लभ है । जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थीका अविरोध भावसे सेवन कर मोक्षपुरुषार्थ की ओर प्रवृत होता है, वही आत्माकी सिद्धि करता है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र ही मुक्तिके कारण हैं तथा ध्यान रत्नत्रयकी सिद्धिका सबल हेतु है । कमका क्षय ध्यानके बिना सम्भव नहीं है । चित्तकी चञ्चलता ध्यान के द्वारा ही दूर की जा सकती है और उपयोगको स्थिर किया जा सकता है। मोहका त्याग ही आत्माके स्वस्थ होनेका कारण है । अज्ञानरूपी महानिद्रा, ध्यानरूपी अमृतके प्राप्त होनेसे ही दूर होती है। कामभोगोंकी आसक्तिको दूर करनेका साधन भी ध्यान ही है । अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा आत्माके तीन प्रकारके परिणाम होते हैं— शुभ, अशुभ और शुद्ध ध्यानके द्वारा ही इन तीनों प्रकारके परिणामोंमेंसे शुभ और शुद्ध परिणामों की प्राप्ति की जाती है ।
चतुर्थ सर्ग में भी ध्यानके स्वरूपका वर्णन आया है। इसमें ६२ पद्य हैं । ध्यानके चार भेद बतलाये हैं-- आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान, ध्यानके दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित समस्त अंग, ध्येय तथा ध्येयके गुण-दोष, ध्यानके नाम, ध्यानका समय और ध्यानके फलका वर्णन किया गया है । ध्याताके स्वरूपका विवेचन करते हुए बताया है, जो जितेन्द्रिय है, अप्रमादी है, कष्टसहिष्णु है, संसारसे विरक्त है, क्षोभरहित है, शान्त है, ऐसा व्यक्ति ही ध्याता हो सकता है । जो मिथ्यदृष्टि है, संसारके विषयों में आसक्त हैं, वे ध्याता नहीं हो सकते । ध्याताको कान्दर्षी आदि पाँच भावनाओंका भी त्याग करना चाहिये - १. कान्दर्पी ( कामचेष्टा ) २. कैल्विषी ( क्लेशकारिणी ) ३. अभियोगिकी ( युद्धभावना ) ४. आसुरी ( सर्वभक्षिणी ) और ५. सम्मोहिनी ( कुटुम्बमोहिनी ) पापरूप इन पांचों भावनाओंका त्याग करना योग्य १. ज्ञानार्णव, द्वितीय सर्ग, बोषिदुर्लभ भावना, पद्य १३ ।
१५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा