Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सर्वज्ञका प्रत्यक्ष सूक्ष्मादि पदार्थोंको विषय करता है । अतः वह इन्द्रिय और मनकी सहायतासे नहीं। ___ अनुमान द्वारा भी सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। स्वभावविप्रकृष्ट परमाण आदि, कालविप्रकृष्ट रावणादि, देशविप्रकृष्ट हिमवानादि किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमानका विषय होनेसे । यदि यह कहा जाय कि स्वभावविप्रकृष्ट, देशविप्रकृष्ट और कालविप्रकृष्ट पदार्थ अनुमानसे नहीं जाने जा सकते, तो अनुमान प्रमाणका ही मूलोच्छेद हो जायगा । अनुमानकी उपयोगिता इसा अर्थ में है कि वह उन पदार्थीको ग्रहण करता है जो पदार्थ हमारे प्रत्यक्षगोचर नहीं हैं। अतएव अनुमानसे भी सर्वशको सिद्धि होती है । तर्क भी सर्वज्ञको सिद्ध करनेमें सहायक है । व्याप्तिज्ञानसे तर्कको उत्पत्ति होती है। अतएव सूक्ष्मादि पदार्थ व्यतिरेकव्याप्ति द्वारा तर्कसे सिद्ध होते हैं । आचार्यने लिखा है
यदि षडभिः प्रमाणः स्यात्सर्वज्ञ: केन वार्यते एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते ।। नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन्प्रतिपद्यते ।। यज्ञातीयः प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनं ।। भवेदिदानी लोकस्य तथा कालांतरेऽप्यभूत।। यत्राप्यतिशयो दृष्ट: सस्वार्थानत्तिलंघनात् ।।
दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोतृवृत्तित्तः ।। स्पष्ट है कि आचार्यने सर्वज्ञकी सिद्धि षट्प्रमाण द्वारा की है और आवरणके दूर होने पर निष्कलंक आत्मा सर्वज्ञ हो सकता है। 'सूक्ष्मादि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमेय होनेसे' इस अनुमानमें किसी दूसरे अनुमानसे बाधा भी नहीं आती है । इस प्रकार अनन्तीतिने सप्रमाण सर्वसिद्धि प्रस्तुत की है।
बृहत्सर्वशसिद्धिका विषय भी लघुसर्वज्ञसिद्धिका ही है । आरम्भमें सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंको किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध किया है, अनुमेय होनेसे । बताया है
_ "सूक्ष्मांतरितद्रार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः अनुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकपूर्वकरविसंवादिनष्टमष्टिचितालाभालाभसुखदुःखग्रहोपरागाद्युपदेशकरणान्यथानुपपत्तेः। सथाहि-नष्टं देशांतरितं कालांतरितं द्रव्यांतरित वा स्यात् । मुष्टिस्थ वस्तु द्रव्यांतरितम् । चिंता सूक्ष्मस्वभावा | लाभालाभो कालांतरिती। तथा सुखदुःखे। ग्रहोपरागादि: कालांतरितः । मंत्रौषधिशक्तयः सूक्ष्मस्वभावाः। तदेषां
१. लधुसर्वशसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला, पृ० ११६-११७ । १६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा