Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तोरण लगाकर सभी दिशाओंमें मशालके समीप जलसे भरे हर घटोको स्थापित करे । इसके पूर्व आदि आठ कोणोंमें इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्त, बरुण, यम, कुबेर और ईशान देवाको समस्त लक्षणोंस युवन करे। इन्द्रको पीत, अग्निको अग्नितुल्य, यमको अत्यन्त कृष्ण, नैऋतको हरित, वरुणको चन्द्रमाके समान, वायुको असित
-धूमिल वर्ण, कुबेरका समस्त रंग युक्त और ईशान देवको श्वेत वर्ण युक्त अंकित करे । इनके वाहन क्रमशः गज, मेष, महिप, शत्र, मकर, मृग, तुरंग और वृषभ हैं। इनके हाथों में बत्र, अग्नि, दण्ड, शक्ति, तलवार, पाश, महातुरंग, दात्रि और शल हैं। इन लोकपालोंके बीच में देवीकी आकृति बनाये | अनन्तर मन्त्रीको स्थापना कर पूजा करें। इस प्रकरण विभिन्न प्रकारके मन्त्र भी दिये गये हैं तथा पञ्चोपचारका विधान है। इसके पश्चात् सर्वतोभद्र मण्डल बनाने की विधि वणित है। इस मण्डलमें मेघ, महामेघ, ज्वाल, लोल, काल, स्थित, अनील, रोद्र, अतिरौद्र, सजल, अजल, हिमका, हिमाचल, लुलित, महाकाल और नान्दिके अंकित करनेका निर्देश आया है ।
समयमण्डल एवं विभिन्न मन्त्रोंका उल्लेख करने के पश्चात् सत्यमण्डल रचनाको विधि दी गयी है। इन मण्डलों द्वारा मन्त्राराधनाकी विधि एवं महत्त्व अंकित किया गया है।
पञ्चम परिच्छेदमें २० पद्य हैं। इसमें भूता-झम्पन-तलका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। इस तलको बनानेमें पूतिक, शुक-तुण्डिका, काक-तुण्डिका, अश्वगन्धा, भृकुषमांडि, इन्द्र, वारणी, पूति, दमन, अग्रगन्धा, श्रीपर्णी, असगंध, कुटज, कुकरंजा, गोशृंगि, शृंगिनाग, सर्पविप, मुष्टिका, अंजीर, भीलीसत्, चकांगी, स्वरकर्णी, गोररू, सवलेका, बिप, कनक, बराही, अंकोल, अस्थि, प्रभ, लज्जरिका, पालिका, काम, मदनतरु, भिलावा, काकजंघा, कन्ध्या, देवदारु, बुहती, सहदेवी, गिरिकणिका, नदिल्लिका, अकशल हस्तिकर्णी, नीम, महानीम, सिरस, लोकेश्वरी, दान्य, पारिवृक्ष, महावृक्ष, कटुकहार, उपयोगिमूल, श्वेत और लाल जयादि, ब्राह्मी, कोकिलाक्ष, मंग, देवपालि, कटुकॅबी, सिंहकेसकर, घोषालिका, अर्कभक्ति, पतिलता, मुक्तिलता, अतिमुक्तकलता, भगमुष्कि, नागकेशर, शार्दूलनखी, पुत्रजीवी, शीग्रह, एरण्ड, तुलसी, सन्ध्या, अपामार्ग एवं गजमद आदि
औषधियोंका प्रयोग किया जाता है 1 उपर्युक्त औषधियोंको कूट-पीस कर विभिन्न प्रकारकी वस्तुओं द्वारा भावना देनेकी विधि भी वर्णित है।
षष्ट परिच्छेदमें ४७ पद्य हैं ! सर्वप्रथम सर्वरक्षामन्त्रकी विधिका वर्णन करते हुए द्वादश कमलपत्रोंमें बीजाक्षरोंको सुगन्धित द्रव्य द्वारा लिखनेका वर्णन आया है। यह मन्त्र रोग, पीडा, अपमृत्यु, भय, ग्रह और पिशाचपीडा आदिसे १८२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा