Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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लेखोंमें उल्लिखित बन्दणिके तीर्थाध्यक्ष भानुकीर्ति ( ई० सन् ११३९-८२ ई०) के प्रशिष्य थे और सम्भवतया देवकीतिके शिष्य और धर्मकीतिके गुरु थे ।
काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके प्रतिष्ठाचार्य के रूपमें एक अन्य अनन्तकीर्तिका उल्लेख मिलता है। इनका ई. सन् १३७१ के चन्द्रवाडके कई मूर्तिलेखोंमें उल्लेख आया है। इसी गण-मच्छके भट्टारक कमलकीतिके शिष्य भी अनन्तकीर्ति हुए हैं।
एक अनन्तकीर्ति नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणके सागवाड़ा पटके मण्डलाचार्य रत्नकोतिके शिष्य हैं, जिन्होंने १५४५ ई०के लगभग एक विशाल चतुर्विध संघ सहित दक्षिण देशको विहार किया था और वहाँ जाकर स्त्नकीर्तिपट्ट स्थापित किया था। इसी गणनाच्छके मालवापट्टके अभिनव रत्नकोतिके शिष्य कुमुदचन्द्रके गुरुभाई और ब्रह्मरायमल्ल तथा भट्टारक प्रतापकीतिके गुरु अनन्तकीर्ति हुए हैं। इनका समय ई० सन्की १६वीं शताब्दी है।
इन अनन्तकीसियोंके अतिरिक्त बृहत्सर्वज्ञसिद्धि और लघुसर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति हैं, जिनके शन्तिसूरिके 'जेन तर्कवातिक में उल्लेख एवं उद्धरण पाये जाते हैं तथा अभयदेवसूरि तर्कपञ्चाननकी 'तत्त्वबोधविधायिनी' अपरनाम 'चादमहार्णवसन्मतिटीका में जिनका अनुसरण पाया जाता है। प्रभाचन्द्रने भी अपने न्यायकुमुदचन्द्रमें उनका अनुसरण किया है। प्रमेयकमलमार्तण्डके सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणमें भी अनन्तकोतिको बृहत् सर्वज्ञसिद्धिका शब्दानुसरण पाया जाता है। बृहत्सर्वशसिद्धिके अन्तिम पृष्ठ तो यत्किञ्चित् परिवर्तनके साथ न्यायकुमुदचन्द्रके केवलि-भुक्तिवादप्रकरणसे अपूर्व सादृश्य रखते हैं। ___ अनन्तकीतिके ग्रन्थोंके देखनेसे ज्ञात होता है कि वे अपने युगके प्रख्यात तार्किक विद्वान् थे, इन्होंने स्वप्नज्ञानको मानसप्रत्यक्ष माना है । आचार्य शान्तिसूरिने जैनतकवातिकवृत्ति (पृ. ७७ )में "स्वप्नविज्ञानं यत्स्पष्टमुत्पद्यते इति अनन्तकीर्त्यादयः" अनन्तकीतिका मत उदघृत किया है। यह मत बृहसर्वज्ञसिद्धिमें "तथा स्वप्नज्ञाने चानक्षऽपि वैशद्यमुपलभ्यते" रूपमें निबद्ध है। शान्तिसूरिका समय ई० सन् ९९३-११४७ ई. के बीच है। न्यायाचार्य श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने सन्मतितर्कके टीकाकार अभयदेवसूरि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धिके साथ तुलना कर यह निष्कर्ष निकाला है कि अनन्तकीर्तिका
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ११२-२१५ । २. जैमवर्कवातिक, प्रस्तावना, पृ. १४१ ।
१६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा