Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अनित्य भावनामें ४७ पद्य हैं, इसमें इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिकविभूतिको क्षणविध्वंसी बतलाया है। यह शरीर रोगोंका घर है, यौवन बुढ़ापेसे युक्त है, जीवन विनाशशील है। संसारमें जो भी वैभव प्राप्त हुआ है, वह पुण्यके उदयसे है। पुण्य क्षीण होनेपर सारी सम्पत्ति और सुख विलीन हो जाते हैं। जीव अज्ञानत्तवश ही संसारके सुखोंको वास्तविक समझता है, जो इस क्षणिक जीवनको प्राप्त कर अहंकार करता है या इसके निमित्त विविध प्रकारकी मामग्रीका संचय करता है, वह अन्ध्र व्यक्तिके समान संसारसे उत्तीर्ण होनेका मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता है। जिस प्रकार संध्या समय नाना देशोंसे आकर पक्षी एक ही वृक्ष पर एकत्र होते हैं और प्रातःकाल होते ही वे यथास्थान चल जाते है, उसी प्रकार आयुके सद्भावमें पूण्ययोगसे सभो कुटुम्बी एक साथ रहते हैं और आयुके समाप्त होते ही विभिन्न योनियोंमें जन्म ग्रहण करते हैं। प्रातःकालके समय जिस घर में आनन्दोत्साहके साथ सुन्दर मांगलिक गीत गाये जाते हैं, मध्याह्नके समय सी भरमें दुःपो मार रोग सुनाई पड़ता है। प्रभातकालके समय जहाँ राज्याभिषेककी शोभा देखी जाती है, उसी दिन उस राजाकी चितासे धुआं निकलता हुआ भी दिखलाई पड़ता है। यह संसारकी विचित्रता है । इस प्रकार संसारको अनित्यताका चित्रण करता हुआ कवि कहता है--
गमननगरकल्पं सङ्गम वल्लभानाम्
जलदपटलतुल्यं यौवन वा धनं वा । सुजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि
क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ।। अर्थात्, प्रिय वल्लभाओंका सङ्गम आकाशमें देवोंके द्वारा रचित नगरके समान क्षणविध्वंसी है। यौवन और धन जलदपटलके समान विनाशशील हैं। स्वजन, परिवारके लोग, पुत्र, शरीरादिक विद्यतके समान चञ्चल हैं। इस प्रकार इस जगतकी अवस्था अनित्य है, जो इसमें नित्यबुद्धि करता है, वह भ्रममें है।
इस सर्गकी द्वितीय भावना अशरणभावना है। इसमें १९ पद्य हैं। मरते समय इस जीवका कोई भी शरण नहीं है। जिस प्रकार सिंहके पजेमें फंसे हुए हिरणको कोई भी नहीं बचा सकता है, उसी प्रकार मृत्युसे कोई रक्षा करने वाला नहीं है। अनादिकालसे बड़े-बड़े शक्तिशाली शलाकापुरुष भी कालकलित हुए हैं, तब साधारण व्यक्तियोंकी बात ही क्या ? मृत्युके लिए न कोई बाल है, न कोई वृद्ध है और न कोई युवा है। वह सभीको समान रूपसे नष्ट करती है। अत: जो इस असार संसारमें रहकर चिरन्तन जीवनकी आकांक्षा १. ज्ञानार्णव, सर्ग २, अनित्यभावना, पद्म ४७ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५५