Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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शेष रसको भी पाषाणशिला पर डलवा दिया जिससे भतृहरिको बहुत दुःख हुआ । शुभचन्द्रने भर्तृहरिको समझाते हुए कहा - भाई, यदि सोना बनाना ही अभीष्ट या, तो क्यों घर छोड़ा, घरमें क्या सोना-चांदी, मणिमाणिक्यकी कमी थी । इन वस्तुओंकी प्राप्ति तो गृहस्थीमं सुलभ थीं । अतः सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिके लिए इतना प्रयास करना व्यर्थ है ।
शुभचन्द्रके उपदेशसे भर्तृहरि भी दीक्षित हो गया । भर्तृहरिको मुनिमार्गमें दृढ़ करने और सच्चे योगका ज्ञान करानेके लिए शुभचन्द्रने योगप्रदीप अथवा ज्ञानार्णवकी रचना की ।
उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह विचारणीय है । कथाके उत्तरार्ध में कालिदास, वररुचि, धनञ्जय और मानतुरंगसूरिकी समकालीनता बतलायी गयी है | अतः इसमें ऐतिहासिक तथ्योंका अभाव दिखलायी पड़ता है |
'ज्ञानार्णव' के प्रारम्भ में समन्तभद्र, देवनन्दि, भट्टाकलंक और जिनसेनका स्मरण किया है। इसमें सबसे अन्तिम जिनसेनस्वामी हैं, जिन्होंने जयधवला टीकाका शेषभाग वि० सं० ८९४ में समाप्त किया था। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञानार्णवकी रचना ही सन् ८३७ के पश्चात् हुई है ।
अब विचार यह करना है कि वस्तुतः ज्ञानार्णवके रचयिता शुभचन्द्राचार्य - का समय क्या है ? ज्ञानार्णवके गुण-दोषविचारप्रकरण में निम्नलिखित तीन पद्य 'उक्तञ्च ग्रन्थान्तरे' कहकर उद्धृत किये गये हैं
ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीर्नष्टदृष्टिभिः ॥ ज्ञानं पङ्ग क्रिया नान्धे निःश्रद्धे नार्थकृद्वयम् । ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा श्रयं तत्पदकारणम् । हृतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हृता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गुकः ॥
ये तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पूके छठे आश्वासमें ज्यों-के-त्यों रूपमें उपलब्ध होते हैं । इनमें प्रथम दो पद्योंके रचयिता तो यशस्तिलकके कर्ता सोमदेव हैं और तृतीय पद्य 'उक्तञ्च' कहकर उद्धृत किया गया है। यह तीसरा पद्य कुछ पाठभेदके साथ अकलंकदेवके राजवार्तिकमें भी पाया जाता है । यशस्तिलककी रचना वि० स० १०१६ ( ई० सन् ९५९) में हुई है । इसलिए यह सिद्ध किं हुआ ज्ञानार्णव ई० सन् ९५९ के पश्चात् लिखा गया है। ज्ञानर्णवमें पुरुषार्थसिद्धघु१. ज्ञानार्णव, रामचन्द्र शास्त्रमाला, तृतीय संस्करण, सन् १९६१, सर्ग ४, पद्य २७
के भागे ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५१