Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है अर्थात् अशुभ कर्मोकी निर्जरा होती है। पापका कारण विकल्प है और संकल्पविकल्प असंख्यात होते हैं, अत्तः पापास्रव भी नाना प्रकारसे होता है | अतएव इन समस्त पापको दूर करने का उपाय है मन और इन्द्रियांका बाह्य पदार्थोंकी ओरसे हटा कर काका परमात्मस्वरूपके साथ एकीकरण करना । इसके लिए मनके ऊपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। कारण मनकी अवस्था ऐसी है कि वह समस्त परिग्रहको छोड़कर वनका आश्रय ले लेनेपर भी वाह्य पदार्थों की ओर दौड़ता है। अतएव मनको जीरानेके लिए उसे परमात्मवरूप चिन्तनमें लगाना श्रेयस्कर है। कलिकालके प्रभाव के कारण जो दुष्कर तपश्चरण नहीं कर सकता है, वह सर्वज्ञ वीतरागी प्रभुको केवल भक्ति करनेसे ही आत्मकल्याणका मार्ग प्राप्त कर लेता है ।
१०. सद्बोधचन्द्रोदयअधिकार में ५० पथ हैं। इस अधिकारमें भी चित्स्वरूप परमात्मा की महिमा दिखलाकर यह निर्दिष्ट किया है कि जिसका मन चित्स्वरूप आत्मा में लोग हो जाता है, वह योगी समस्त जीव राशिको आत्मसदृश देखता है। मोहनिद्रा छोड़नेपर ही प्राणी सद्बोधको प्राप्त करता है 1
११. निश्चपञ्चाशतअधिकार - में ६२ पद्य हैं। इसमें आत्मतत्त्वका निरूपण किया गया है । समयसारकी अनेक गाथाओंका भाव अक्षुण्णरूप में प्राप्त होला है । समयसारको निम्नलिखित गाथाओंका प्रभाव इस प्रकरणके पद्योंपर है । यथा
सुपरिचिदाणुभूा सम्वत्स वि कामभोगबंध कहा एयत्तस्युवलभो गरि ण सुल्हो वित्तस्स ||
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- समयसार, जीवाजीवाधिकार गाया |
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श्रुतपरिचितानुभूतं सर्वं सर्वस्य जन्मने सुचिरम् । न तु मुक्तयेऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धिः ॥ - १० वि० १११६ |
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ववहारोऽभूयत्यो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥
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—समयसार, जीवाजीवाधिकार, गाथा ११ । व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः । शुद्धयमाश्रिता से प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ॥
- पद्मनन्दिपञ्चविंशति १११९ । नय दो प्रकारका है - १. शुद्धनय और २ व्यवहारनय । व्यवहारय द्वारा अज्ञानी व्यक्तियोंको प्रबोधित किया जाता है । यह नय यथावस्थित वस्तुको
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : १३५