Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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भर्मरलाकरमें रत्नत्रय, थावकके द्वादशवत, सप्ततत्त्व आदिका विस्तृत वर्णन आया है।
जयसेन द्वितीय आचार्य जयसेन द्वितीय भी अमलचन्द्रसूरिक समान कुन्दकुन्दक अन्धोपा टीकाकार हैं। उन्होंने समयसारको टीकामें अमतचन्द्रवे नामका उल्लेख किया है और उनकी टीकाके कतिपय पद्य भी यथास्थान उद्धृत किये हैं। अतः यह निश्चित है कि जयसेनके समक्षा अमतचन्द्र सूरिको टीका विद्यमान थी, पर शेली और अर्थकी दृष्टि उनकी यह टीका अमतचन्द्रसूरिकी अपेक्षा भिन्न है।
प्रवचनसारको टोकाके अन्तमें आठ पद्योंमें एक प्रशस्ति दी गयी है। इस प्रशस्तिमें गुरुपरम्पराका परिचय निम्न प्रकार आया है
ततः श्रीमोमरोनो भूद्गणी गुणगणाश्रयः । तदिनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते ॥ शीघ्र बभूव मालुसाधुः सदा धर्मरतो वदान्यः । सनुस्ततः साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुभटस्तनूज: ।। य: संततं सर्वविदः सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभूतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभीरुः ॥ अर्थात् मूलसंघके निर्ग्रन्थ तपस्वी वीरसेनाचार्य हार। उनके शिष्य अनेक गुणोंके धारी आचार्य सोमसेन हुए और उनके शिष्य आचार्य जयसेन हुए । सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु नामके साधु हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है। उनसे यह चारुभट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ है जो सर्वज्ञको पूजा तथा सदा आचार्योंके चरणोंकी आरावनापूर्वक सेवा करता है। उस चारभट अर्थात् जयसेनाचार्यने अपने पिताकी भक्तिके विलोप होनेसे भयभीत हो इस प्राभृतनामक ग्रन्थकी टीका की है। __ श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरुको नमस्कार करता हूँ जो आत्माके भावरूपी जलको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वतके सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं। ___ इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य के गुरुका नाम सोमसेन और दादागुरुका नाम वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरुको भी नमस्कार किया है, पर प्रशस्तिसे यह ज्ञात नहीं होता कि ये त्रिभवनचन्द्र कौन हैं ? इतना स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य सेनगणान्वयी हैं। इन्होंने अन्य किसी टीकामें अपना परिचय नहीं दिया है। १. प्रवचनसार, जयसेनटीकाको प्रशस्ति, पच ३, ४, ५ । १४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्गपरम्परा