Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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धो देता है। इसके विपरीत उस जलके स्नानसे तो प्राणिहिंसाजनित केबल पापमलका ही संचय होता है । जो शरीर प्रतिदिन स्नान करनेसे भी अपवित्र रहता है तथा अनेक सुगन्धित लेपनोंसे लेपित होनेपर भी दुर्गन्धित बना रहता है, उस शरीर की शुद्धि जलद्वारा नहीं की जा सकती और न कोई ऐसा तीर्थ ही है जिसमें स्नान करनेसे वह पवित्र हो सके ।
२६. बह्मचर्याष्टक - इस प्रकरणमें पद्य हैं और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । विषयसेवन की ओर प्रवृत्ति पशुओंकी रहती है, अतः यहू पशु कर्म है | जब अपनी स्त्रीके साथ भी विषयसेवन करना निद्य है तब परस्त्री या वेश्या के सम्बन्ध में कहना ही क्या ? वस्तुतः यह विषयोपभोग तीक्ष्ण कुठार है, जिसके सेवन से संयमरूप वृक्ष निर्मूल हो जाता है। आचार्यने बताया है—रतिनिषेधविधी यत्तत्तां भवेच्चपलतां प्रविहाय मनः सदा । विषय सौस्यमिदं विपसंनिभं कुशलमस्ति न मुक्तवतस्तव ॥
जयसेन प्रथम
धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थके रचयिता आचार्य जयसेन लाङबागड संघके विद्वान थे। उन्होंने धर्मरत्नाकरकी अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरुपरम्परा अंकित की है । इस परम्परामें बताया है कि धर्मसेनके शिष्य शान्तिषेण, शान्तिषेणके गोपसेन, गोपसेनके भाबसेन और भावसेनके शिष्य जयसेन थे। इन्होंने अपने वंशको योगीन्द्रवंश कहा है । प्रशस्तिमें लिखा है
श्रीमान्सो भून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गणींद्र ---- स्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनीभूतयोगीन्द्रवंशे ॥३॥
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तेभ्य: श्री ( तस्माच्छी) शांतिषेणः समजनि सुगुरुः पापधूली-समीरः ॥४॥
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वृद्धा च संततमनेकजनोपभोग्या श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स तस्मात् ||५||
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न ज्ञातः कलिना जगत्सुबलिना श्रीभावसेनस्ततः ॥ ६ ॥ ततो जातः शिष्यः सकल जनतानंदजनकः प्रसिद्धसाधूनां जगति जयसेनाख्य इह सः ।
१. पद्मनन्दिपञ्चविंशति, २६४८ ।
१४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा