Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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के सम्बोधनार्थं एकत्व-सप्ततिवृत्तिकी रचना की थी। निम्बराज शिलाहारवंशीय गण्डरादित्यनरेशके सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुरमें अपने अधिपतिके नामसे 'रूपनरायणवर्मादि' नामक जैनमन्दिरका निर्माण कराया था तथा कात्तिक कृष्णा शक संवत् १०५८ ( वि० सं० ११०३ ) में कोल्हापुर और मिरजके आसपास के ग्रामोंकी आयका भी दान दिया था । अतः मूलग्रन्थकार और टीकाकार के नाममं साम्य होनेसे तथा दीक्षा और शिक्षा गुरुओं के नाम भी एक होने से उनमें अभिन्नत्वकी कल्पना की जा सकती है ।
इस रचना में २६ विषय हैं
१. धर्मापदेशामृत, २ दानोपदेशन, ३. अनित्यपञ्चाशत, ४. एकत्वसप्तति, ५. यतिभावनाष्टक, ६. उपासक संस्कार, ७. देशव्रतोद्योतन, ८ सिद्धस्तुति, ९. आलोचना, १०. सदुबोधचन्द्रोदय, ११. निश्चयपञ्चाशत, १२. ब्रह्मचर्य रक्षावति, १३. ऋषभस्तोत्र, १४. जिनदर्शनस्तवन, १५. श्रुतदेवतास्तुति १६. स्वयंभूस्तुति, १७. सुप्रभाताष्टक, १८. शान्तिनाथस्तोत्र, १९ जिनपूजाष्टक, २० करुणाष्टक २१. क्रियाकाण्डचूलिका, २२. एकत्वभावनादशक, २३. परमार्थविंशति, २४. शरीराष्टक, २५. स्नानाष्टक, २६. ब्रह्मचर्याष्टक |
१. धर्मोपदेशामृत - इस अधिकारमें १२८ पद्य हैं। धर्मोपदेशका अधिकारी सर्वज्ञ और वीतरागी ही हो सकता है । इस जगत् में असत्य भाषणके दो ही कारण हैं - १. अज्ञानता और २ कषाय । 'परलोकयात्राके लिए धर्म ही पाथेय हैं, पाथेयसे यह यात्रा सकुशल सम्पन्न होती है ।' धर्मका स्वरूप व्यवहार और निश्चयनय दोनों ही दृष्टियोंसे बतलाया गया है । व्यवहारकी दृष्टिसे जीवदया, अशरणको शरण देना और सहानुभूति रखना धर्म है। गृहस्थ और सुनिधर्मकी अपेक्षा धर्मके दो भेद, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी अपेक्षा तीन भेद और उत्तम क्षमा, मार्दव आदिकी अपेक्षा दस भेद धर्मके बतलाये हैं । यह सब धर्म व्यवहारोपयोगी है और इसे शुभोपयोगके नामसे अभिहित किया गया है । यह जीवको नरक, तिर्यञ्च आदि दुर्गतियोंसे छुड़ाकर मनुष्य और देवगतिका सुख प्रदान करता है । निश्चयधर्म जीवको चतुर्गतिके दुःखों से छुड़ाकर उसे अजर-अमर बना देता है और जीव शाश्वत - निर्बाध सुखका अनुभव करता है । निश्चय धर्मको शुद्धोपयोगके नामसे पुकारते हैं ।
बताया है कि प्राणी सांसारिक सुखको अभीष्ट, विषयोपभोगजनित, क्षणिक और सबाध इन्द्रियतृप्तिको हो अन्तिम सुख मानकर व्यवहार धर्मको उसीका साधन समझते हैं और यथार्थ धर्मसे विमुख रहते हैं । अतः निश्चय - अध्यात्म धर्मका सेवन करना आवश्यक है, इसीसे मोक्षकी प्राप्ति सम्भव है ।
१३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा