Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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वियाग हो जाता है, तो सन्ताप उत्पन्न होता है। वास्तविक मुख आकुलता के अभाव है, जो मोक्षमें ही उपलब्ध होता है ।
इसके पञ्चात् विभिन्न दार्शनिकों द्वारा मान्य आत्मस्वरूपको मीमांगा की गयी है | बलाया है—
नो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्तृत्वभावं गतो नको न क्षणिको न विश्वविततो नित्यो चिकान्ततः । आत्मा कार्यमितश्चिदेकनिलयः कर्ना च भोक्ता स्वयं संयुक्तः स्थिरता-विनाश - जननैः प्रत्येकमेकक्षणे ॥
यह आत्मा एकान्तरूपसे न तो शून्य है, न जड़ है, न पृथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न एक है, न क्षणिक है, न विश्वव्यापक है और न नित्य है | किन्तु चैतन्यगुणका आश्रयभूत वह आत्मा प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण होता हुआ स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता भी है। यह आत्मा प्रत्येक समयमें उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप है ।
तात्पर्य यह है शून्यैकान्तबादी माध्यमिक, मुक्ति अवस्था में वृद्धयादि नवविशेषगुणोच्छेदवादी वैशेषिक, भूतचेतन्यवादी चार्वाक, पुरुषाद् सवादी वेदान्ती, सर्वथाक्षणिकवादी सौत्रान्तिक एवं सर्वथा नित्यवादी सांख्यके सिद्धांत का निरसन करने के लिए उक्त पद्म कहा गया है। जो व्यक्ति आत्मा, कर्म और संसारकी अवस्थाका अनुभव कर धर्माचरण करता है, वह धर्माचरण द्वारा शाश्वनिक सुखको प्राप्त कर लेता है ।
२. दानोपदेशन अधिकार - में १४ पद्य हैं । दानकी आवश्यकता और महत्त्व प्रकट हुए बतलाया है कि श्रावक गृहमें रहता हुआ अपने और अपने आश्रित कुटुम्बके भरण-पोषण हेतु धनार्जन करता है, इसमें हिंसादिका प्रयोग होनेसे पापका संचय होता है। इस पापको नष्ट करनेका साधन दान ही है। यह दान श्रावके पद आवश्यकमि प्रधान है । जिस प्रकार जल वस्त्र लगे हुए रखतादिको दूर कर देता है, उसी प्रकार सत्पात्रदान श्रावकके कृषि और वाणिज्य आदिसे उत्पन्न पापमलको वोकर उसे निष्पाप कर देता है । दानके प्रभावसे दाताको भविष्य में कई गुनी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। गृहस्थ के लिए पात्रदान ही कल्याणका साधन है, जो दान नहीं देता, वह धनसे सम्पन्न होनेपर भी रंकके समान है । इस प्रकरणमें आचार्यने उत्तम, मध्यम, जघन्य, कुपात्र और अपात्र के अनुसार दानका फल बतलाया गया है।
१. पद्मनन्दिपञ्चविंशति १।१३४ ।
१३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा