Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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असाध्य रोग उसी प्रकार देहमेंसे भाग निकलते हैं जिस प्रकार सपेरेकी बीन सुनते ही बामीसे साँप निकल पड़ते हैं ।
भक्त भगवान् की बराबरी करता हुआ कहता है कि जो आप हैं सो मैं हूँ । शक्तिकी अपेक्षा मुझमें और आपमें कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है । अन्तर इतना ही है कि भगवन् ! आप शुद्ध है, रत्नत्रयगुण विशिष्ट हैं, जब कि मेरी आत्मा अभी अशुद्ध है । रत्नत्रयगुणका केवल प्रवेश हो हुआ है, पूर्णता तो अभी दूर है | अतः जिस प्रकार दीपकको लोको प्रज्वलित करनेके लिए अन्य दीपककी लौका सहारा आवश्यक होता है, उसी प्रकार भगवन् ! आत्मशुद्धिके हेतु मुझे आपका अवलम्बन लेना है । यथा—
प्रादुर्भूत-स्थिर-पद- सुख त्वामनुध्यायतो मे
स्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा । मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्तिमभ्रं षरूपां
दोषात्पागोऽप्यनियत-फसादादन्ति ॥१७॥
अर्थात्, हे भगवन् ! आपका ध्यान करनेसे मेरे मन में यह भावना उत्पन्न होती है कि जो आप हैं सो मैं हूँ । यद्यपि यह बुद्धि मिथ्या है, क्योंकि आप अविनाशी सुखको प्राप्त हैं और मैं भव-भ्रमणके दुःख उठा रहा हूँ, तो भी मुझे आत्मा के स्वभावका बोधकर अविनाशी सुख प्राप्त करना है, इतने मात्रसे ही सन्तोष होता है । यह सत्य है कि आपके प्रसादसे सदोष आत्माएँ भी इच्छित फलको प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार आचार्य ने भक्ति भावनाका वैशिष्ट्य दिखलाया है । स्तोत्र सरस और प्रीढ़ है ।
न्यायविनिश्चयविवरण
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अकलंकदेवने न्यायविनिश्चय नामक तर्कग्रन्थ लिखा है कारिकाएँ हैं और तीन प्रस्ताव हैं। प्रथम प्रस्तावमें १६८ ॥ २१६|| तथा तृतीय प्रस्ताव में ९५ कारिकाएँ हैं । वादिराजने इस ग्रन्थपर अपना विवरण लिखा है, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इसमें पक्षोंको समृद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए अगणित ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत किये हैं । इन्होंने अपनी इस टीकाको 'न्यायविनिश्चयविवरण' नाम स्वयं दिया है ।
इस ग्रन्थ में ४८० द्वितीय प्रस्ताव में
प्रणिपत्य स्थिरभक्या गुरून् परानप्युदा बुद्धिगुणान् । न्यायविनिश्चयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ॥
वादिराज द्वारा लिखित भाष्यका प्रमाण बीस हजार श्लोक है । वादिराजने
२. न्यायविनिश्चयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना उद्धृत पू० ३५ । १०४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा