Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
मन्दर पर्वत, छह कुलपर्वत. दोसौ काश्चमपर्वत, चार यमकपर्वत, चार नाभिगिरि, चौतीस वृषभगिरि, चौतीस विजयार्द्ध, सोलह यक्षार पर्वत और आठ दिग्गज पर्वत स्थित हैं। इन सबके पृथक-पृथक् वेदियाँ और वनसमूह भी है। चौदह लाख छप्पन हजार नब्बे नदियाँ जम्बूद्वीपमें हैं। नदी, तट, पर्वत, उद्यान, बन, दिव्य भवन, शाल्मलिवृक्ष और जम्बूवृक्ष आदिके उपर स्थित जिनप्रतिमाओंको नमस्कार करके जिनेन्द्रसे बोध-याचना की गयी है।
द्वितीय उद्देश्यमें २१० गाथाएँ हैं। क्षेत्रोंका वर्णन करते हुए भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र तथा क्रमशः इनका विभाग करने वाले हिमवान्, गाहारिमा , यि, नील, किम और शिखरी ये पद् कुलाचल स्थित हैं । जम्बू द्वीपके गोलाकार होनेसे इसमें स्थित उन क्षेत्र पर्वतोंमें क्षेत्रसे दूना पर्वत और उससे दुना विस्तृत आगेका क्षेत्र है । यह क्रम उसके मध्य में स्थित विदेह क्षेत्र तक है। इस क्षेत्रसे आगेके पर्वतका विस्तार आधा है और उससे आधा विस्तार आगेके क्षेत्रका है। यह क्रम अन्तिम ऐरायत्त क्षेत्र तक है। इस प्रकार जम्बूद्वीपके खण्ड भरत १ + हिमवान् २ + हैमवत्त ४+ महाहिमवान् ८+ हरिवर्ष १६ + निषध ३२ + विदेह ६४ + नील ३२+ रम्यक १६ + सक्मि ८ + हैरण्यवत ४ + शिखरी २+ऐरावत १ = १९० हो गये हैं । जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन है । गोल क्षेत्रके विभागभूत होनेसे इन क्षेत्र और पर्वतोंका आकार धनुष जैसा हो गया है। यहाँ धनुपृष्ठ, बाहु, जीवा, चूलिका और बाणका प्रमाण निकालनेके लिए करणसूत्र दिये गये है।
विजयाबका वर्णन करते हुए वहाँ उसको दक्षिण श्रेणीमें पचास और उत्तर श्रेणिमें साठ विद्याधर नगरोंका निर्दश करके ४०वी गाथामें उनकी सम्मिलित संख्या २०७ बतलायो है, यह संख्या विचारणीय है । यों तो ५० + ६० = ११० विद्याधर नगर बतलाये गये हैं। यदि इनमें ऐरावत क्षेत्रस्थ विजयाध पर्वतके भी नगरोंको संख्या सम्मिलित करली जाय, तो २२० नगर होने चाहिए। विजया पर्वतके वर्णनप्रसंगमें उसके ऊपर स्थित नौ कूटोंका नामनिर्देश कर उनपर स्थित जिनभवन, देवभवन और उद्यान बनोंका वर्णन किया है । पर्वतके दोनों ओर तिमिस्र और स्वण्डप्रपात नामकी दो गुफाएं हैं। इन्हीं गफाओंके भीतर आकर गंगा और मिन्धु दक्षिणभारतमें प्रविष्ट होतो हैं। तदनन्तर उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालके भेदोंका उल्लेख करते हुए बताया है कि समस्त विदेह क्षेत्रों, म्लेच्छरखण्डों और समस्त विद्याधरनगरोंमें सदा चतुर्थ काल विद्यमान रहता है । देवकुरु और उत्तरकुरुमें प्रथम, हैमवत और हैरण्यवतमें तृतीय एवं हरिवर्ष और रम्यक क्षेत्र में द्वितीय काल सदा रहता है । इन कालोंमें उत्सेध, आयु, योजन
११२ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपरम्परा