Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है। परमाणु और अवसनासन्नादिके क्रमसे जो अङ्गुल निष्पन्न होता है, वह सूच्यङ्गल कहलाता है। इसके प्रतरको प्रतराङ्गल और धनको घनागल कहते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जिस-जिस कालमें जो मनुष्य होते हैं, उनके अङ्गुलको आत्माङ्गुल कहा जाता है। उत्सेधाङ्गलसे नर-नारकादि जीवोंके शरीर को ऊँचाईका प्रमाण बतलाया जाता है । प्रमाणाङ्गलसे द्वीप, समुद्र, नदी, कुण्ड, क्षेत्र, पर्वत, जिनभवनानि विस्तारः : ससाना है और आत्माङ्गुलसे कलश, झारी, दण्ड, धनुष, वाण, हल, मूसल, रथ, सिंहासन, छत्र, चमर और गृह आदिका प्रमाण ज्ञात किया जाता है।
इसके पश्चात् व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य, अद्धापल्य, कोड़ा-कोड़ी, उसर्पिणी, अवपिणी आदिका मान बतलाया गया है। अनन्तर सर्वज्ञसिद्धिके लिए प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और अविरुद्ध आगम प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। प्रग्याणके दो भेद हैं. प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें प्रत्यक्ष भी सकल और चिकलके भेदस दो प्रकारका है। सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान और विषालप्रत्यक्ष अवधि और मन:पर्ययज्ञान हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद अवधिज्ञानके, तथा ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय ये दो भेद मनःपर्ययज्ञानके हैं। परोक्ष-भेदोंके अन्तर्गत आभिनिबोधिक ज्ञानके ३३६ भेदोंका निर्देश करते हुए अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाका स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । पश्चात् क्षुधा, तृषादिसे रहित देवका वर्णन करते हुए अरहन्त परमेष्ठीके ३४ अतिशयों, देवरिगृहीत आठ मङ्गलद्रव्यों, आठ प्रतिहार्यों और नव केबललब्धियोंका नामोल्लेख करके १८ हजार शोलों और ८४ हजार गुणोंका भी निर्देश किया है। इस प्रकार इस ग्रन्थमें मनुष्यक्षेत्र, मध्यलोक, पाताललोक और उध्वंलोकका विस्तारसे वर्णन आया है। जैन भूगोलकी दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। धम्मरसायण ____ इस ग्रन्थमें १२३ गाथाएँ हैं। धर्मरसायननामके मुक्तक-काव्य प्राकृत-भाषाके कवियोंने एकाध और भी लिखे हैं। इस नामका आशय यही रहा है कि जिन मुक्तकोंमें संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होनेके आचार और नैतिक नियमोंको चचित किया जाता है, इस प्रकारकी रचनाएँ धर्मरसायनके अन्तर्गत आती हैं। प्रस्तुत ग्रन्थका भी मूल वय-विषय यही है। यद्यपि इस ग्रन्थमें काव्यतत्वको अपेक्षा धर्मतत्व ही मुखरित हो रहा है, तो भी जीवनके शाश्वतिक नियमोंकी दृष्टिसे इसका पर्याप्त मूल्य है। नैतिक और धार्मिक जीवनके सभी १. सिद्धान्तसारादिके अन्तर्गत, मा० दि० जन ग्रन्धमालासे १९०९ ई० में प्रकाशित ।
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२१