Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सक, बौद्ध प्रभुति दार्शनिकोंकी प्रमाणविषयवः मान्यताओंकी समीक्षा की गयी है । बताया है___ सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वाऽन्यथाऽनुपपनेः । इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम । तच्च तस्य सम्यग्ज्ञानत्वे सत्येव भवति नाऽचेतनत्वे नाऽप्यम्यग्ज्ञानत्वे । ननु च तत्क्रियायामस्त्येवाचेतनस्यापीन्द्रियलिङ्गादे; करणत्वं, नक्षषा प्रमीयते धूमादिना प्रमीयत इति । तत्रापि प्रमितिक्रियाकरणत्वस्य प्रसिद्धेरिति चेत् । __ इस प्रकरणमें व्यवसायात्मक सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण सिद्ध किया है। इन्द्रिय, आलोक, सन्निकर्ष आदिको प्रमाणताकी समीक्षा की गयी है। ज्ञानकी उत्पत्तिमें अर्थ और आलोकको कारणताका निरसन किया है।
प्रत्यक्षनिर्णय प्रकरणमें स्पष्ट प्रतिभासित होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है । स्पष्टावभास इन्द्रियज्ञान में संभव नहीं है, अतः इन्द्रियज्ञान परोक्ष है। स्पष्ट प्रतिभास प्रत्यक्षज्ञान में पाया जाता है और वह अतीन्द्रिय होता है | इस सन्दर्भमें सन्निकर्षके प्रत्यक्षत्वका निरसन किया है। चक्षके प्राप्यकारित्वका पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा है—'चक्षुः सन्निकृष्टमर्थं प्रकाशयति बाह्य न्द्रियत्वात्त्वगादिवत्" अर्थात् चक्षु सन्निकृष्ट अर्थको ही प्रकाशित करती है, बाह्य न्द्रिय होनसे, स्पर्शन प्रिय समान । इस मान द्वारा चक्षुका प्राप्यकारित्व सिद्ध करके उसका निरसन किया है।
इस ग्रन्थमें परोक्षके दो भेद किये हैं-१. अनुमान और २. आगम | अनुमानके गौण और मुख्य भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कको गौण अनुमान माना गया है। इस प्रकारकी भेदकल्पना नवीन प्रतीत होती है, अन्य किसी प्रमाणग्रन्थमें ऐसा दिखलायी नहीं पड़ता है। वादिराजने तर्कप्रमाणकी सिद्धि करते हए लिखा है कि व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते हैं तथा साध्य और साधनके अविनाभावको व्याप्ति । अविनाभाव एक नियम है और यह नियम दो प्रकारसे व्यवस्थित है—१. तथोपपत्ति और २. अन्यथानुपपत्ति । साध्यके होने पर ही साधनका होना तथोपपत्ति और साध्यके न होने पर साधनका न होना ही अन्यथानुपपत्ति-अविनाभाव है। व्याप्तिका ज्ञान अन्य किसी प्रमाणसे सम्भव नहीं है, अत: तर्कप्रमाण मानना आवश्यक है। तकका अनुमानमें अन्तर्भाव सम्भव नहीं है-"तदवच्छेदेनावगतात्तु ततो नानुमानमन्यत्रा
१. प्रमाणनिर्णय, माणिकचन्द दि० जै० ग्रन्थमाला, वि-सं० १९७४, पृ० १-२। २. प्रमाणनिर्णय, पृ० १८ ।
१०६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा