Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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निमित्त ग्रह 'जम्बूदीवपणात लिखी गयीं । गुरम्पराके सन्दर्भमं पद्मनन्दिने अपने सम्बन्ध में बताया है कि त्रिदण्डरहित, ल्यपरिशुद्ध गारवत्र्यसे रहित, सिद्धान्त के पारगामी और तप-नियम-योग से संयुक्त पद्मनन्दि नामक मुनि हुए ।
ग्रन्थ रचना के स्थान और वह कि शासकका नाम निर्देश करते हुए यह बतलाया है कि वारांनगरका स्वामी नरोत्तमशवितभूपाल था, जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध व्रतकर्मको करनेवाला निरन्तर दानशील, जिनशासन वत्सल, वीर, नरपतिसंपूजित और कलाओं में कुशल था । यह नगर धन-धान्य से परिपूर्ण, सम्यदृष्टियों और मुनिजनोंसे मण्डित, जिनभवनोंसे विभूषित, रमणीय पारयात्र देश के अन्तर्गत था । इन्होंने अपनेको 'वरपउमनंदि' कहा है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये पद्मनन्दि पूर्वोक्त सभी पद्मनन्दियोंसे भिन्न हैं ।
'जंबूदीवपत्ति' के अतिरिक्त इनको दो रचनाएँ और मानी जा सकती हैं। एक है प्राकृतपद्यात्मक 'धम्मरसायण' और दूसरी है 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति' । श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने' पञ्चसंग्रहवृत्तिका रचयिता प्रस्तुत पद्मनन्दिको ही माना है । प्राकृतपंचसंग्रहवृत्तिकार पप्पनन्दिने अपना निर्देश करते हुए लिखा है
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जह जिणवरेहिं कहियं गणहरदेवेहि गथिय सम्मं । आयरियकमेण पुणो जह गंगणइपत्रहुव्य ।। तह उमगंदिमुणिणारइयं भवियाण बोहणठाए । ओघादेसेण य पडणं बंधसामित्तं ॥
पं० हीरालालजीकी मान्यता उचित प्रतीत होती है, क्योंकि 'जंबूदीवपण्णत्त' और 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति की उत्थापनाएँ तुल्य हैं । निस्सन्देह पद्म नन्दि प्राकृतभाषा और सिद्धान्तशास्त्र के परगामी हैं । अतः यह वृत्ति गमनन्दि प्रथम द्वारा बिरचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । अन्य जितने पद्मनन्दि मिलते हैं, वे प्राकृतके विशेषज्ञ प्रतीत्त नहीं होते । अतएव प्रस्तुत पचनन्दिकी तीन रचनाएँ मानी जा सकती हैं - १. जंबूदीवपणत्ति २. धम्मरसायण ३. प्राकृतपंचसंग्रवृत्ति | समय-निर्धारण
'जंबूदीवपणत्ति' के रचयिता पद्मनन्दिका समय क्या है ? इसका निर्णय अन्तरंग प्रमाणोंके आधारपर किया जाना सम्भव नहीं है । हाँ, अभिलेख, इतर आचार्यों द्वारा किये निर्देश एवं अन्य ग्रन्थोंसे विषयके आधारपर समयका निर्धारण किया जा सकता है 1 'जंबूदीवपण्णत्ति' की आमेर शास्त्र भण्डारकी प्रति ज्येष्ठ १-२ पवसंह, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना से उद्धत, कृ० ३९ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०९