Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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मूलबातिकपर अपना भाष्य लिखा है। इनके भाष्य में अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोक भी सम्मिलित है। इन्होंने वृत्ति या चूणिगत समस्त पयोंका व्याख्यान लिखा है। न्यायविनिश्चर्याववरणको रचना अत्यन्त प्रसन्न और मौलिक शैलीमें हुई है। प्रत्येक विषयको स्वयं आत्मसात् करके ही व्यवस्थित दंगसे युक्तियोंका जाल बिछाया है, जिससे प्रतिवादीको निकलने का अवसर नहीं मिलता। सांख्यके पूर्वपक्ष में (प० २३५: योगभाष्यका उल्लेख 'विन्ध्यवासिनो भाष्य' शब्दसे किया है। मांख्यकारिकाके एक प्राचीन निबन्धसे भोगकी परिभाषा उद्धृत को है। ___ बौद्धमत समीक्षाम धर्मवोतिके प्रमाण बातिक और प्रज्ञाकरके वातिकालंगारकी इतनी गहरी और विस्तृत आलोचना अन्यत्र देग्यने में नहीं आयी। वार्तिकालंकारका तो आधा-सा भाग इसमें आलोचित है। वलर, शान्तिभद्र, अचंट आदि प्रमुख बौद्धदार्शनिकोंकी समीक्षा की है।
सादर्शननी तमलोपा सादर, मुकेश, प्रभाकर, मण्डन, कुमारिल आदिका गम्भीर पर्यालोचन किया गया है। इसी तरह न्याय-वंशेषिक मतमें व्योमशिव, आत्र य, भासर्वज्ञ, विश्वरूप आदि प्राचीन आचार्योंके मत उनके ग्रन्थाले उद्धृत करके आलोचित हुए हैं। उपनिषदोका वेदभस्तक कहकर उल्लेख किया है । इस तरह जितना परपक्ष-समीक्षणका भाग है, वह उन-उन मतोंके प्राचीनतम ग्रन्योंसे लेकर ही पूर्वपक्षक रूपमें उपस्थित्त किया है।
स्वाक्ष-संस्थापनामें समन्तभद्रादि आचार्योंके प्रमाण वाक्योंसे पक्षका समर्थन परिपुष्ट रूपमें किया गया है। कारिकाओंक व्याख्यानमें बादिराजका व्याकरणज्ञान भी प्रस्फुटित हुआ है। कई कारिकाओंके उन्होंने पाँच-पाँच अर्थ तक दिये हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकाओंके दृष्टिगोचर होते हैं । समस्त विवरणमें दो दाई हजार पद्य इनके द्वारा रचे गये हैं। इनकी तर्कणाशक्ति अत्यन्त मौलिक है। इन्होंने न्यायविनिश्चयके प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रचचन इन तीनों परिच्छेदोंपर विवरणको रचना की है। ज्ञान-ज्ञेयतत्व, प्रमाणप्रमेयतत्व आदिका विवेचन इस ग्रन्थमें पाया जाता है और अकलंकदेवने जिन मल विषयोंकी उत्थापना की है, उनका विस्तृत भाष्य इस विवरणमें आया है। तर्क और दर्शनके तत्वोको स्पष्ट रूपमें समझानेका प्रयास किया है। प्रमाणनिर्णय ___ इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रमाणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णय, परोक्षनिर्णय और आगमनिर्णय ये चार प्रकरण है। प्रमाणनिर्णयके अन्तर्गत प्रमाणका स्वरूपनिर्धारण करते हुए सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण बताया है । इस प्रकरणमें नैयायिक, मीमां
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०५