Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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नामक कुबड़े महावतके मधुर संगीतकी ध्वनिसे आकृष्ट होती है | अष्टभंग कुरूप, अधेड़ एवं वीभत्स आकृत्तिका है, पर उसके कण्ठमें अमृत है । यही कारण है कि अमृतमती उसपर रीझ जाती है और अपने यथार्थ नामके विपरीत विषमतीका आचरण करती है। ___ हिंसा और अहिंसाका महत्त्व अनेक जन्मोंकी कथा निबद्ध कर व्यक्त किया गया है। एकीभावस्तोत्र
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं । २५ गध मन्दाक्रान्ता छन्दमें हैं और एक स्वागतामें । इस स्तोत्रमें भक्ति-भावनाका महत्व प्रदर्शित किया है। आचार्यने स्तोत्रके आरम्भमें ही कहा है
एकीभाव गत इव मया यः स्वय कर्मबन्धो
घोर दुःख भत-भव-गतो वार: करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रवे भक्तिरुन्मुक्तये चेत्
जेतु शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः ॥१॥ हे भगवान् ! आपको भक्ति जब भव-भव में एकत्रित दुःखदायी कर्मबन्धको तोड़ सकती है, तब अन्य शारीरिक संतापका कारण उससे दूर हो जाये, तो इसमें क्या आश्चर्य है।
भगवत्-भक्तिके मनमें रहनेसे समस्त सताप दूर हो जाते हैं । भक्तिद्वारा मानवको आत्म-बोध प्राप्त होता है, जिससे वह चैतन्याभिराम, गुणग्राम, आत्मभिरामको प्राप्त कर लेता है। कवि वादिराजने भगवान्को ज्योतिरूप कहा है। आचार्यको दृष्टिमें आराध्यका स्वरूप सौन्दर्यमय मधुरभावसे भरा हआ है। आशाकी नवीन रश्मियाँ उनके मानस-क्षितिजपर उदित होती हैं, जीवन में एक नवीन उल्लास व्याप्त हो जाता है । भक्तिविभोर होकर तन्मयताकी स्थिति आनेपर समस्त मंगलोंका द्वार खुल जाता है । आचार्य इसी तन्मयताको स्थितिका चित्रण करते हुए कहते हैं
आनन्दाधु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढ-मनाः स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम् । तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक-मध्यात्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधयः कावेयाः ॥३॥ अर्थात्, हे भगवन् ! जो आपमें स्थिरचित्त होता हुआ हर्षाश्रुओंसे विगलित गद्गद् वाणीसे स्तोत्र-मंत्रों द्वारा आपका स्मरण करता है, उसके अनेक प्रकारके
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०३