Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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राजने उसे मरुभूतिका जीव जानकर सम्बोधित किया । वज्रघोषको सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया और निरतिचार व्रत पालन करने लगा। संघ सम्मेदाचलकी ओर चला गया । तपश्चरणके कारण वज्रघोष हाथी कृश हो गया। एक दिन वह जल पीने के लिए एक जलाशय में गया और वहां अपनी शारीरिक दुर्बलताके कारण पंक में फँस गया । कृकवाकुने जब हाथीको देखा तो पूर्वजन्मके वरके स्मरण हो आनेसे उसे मस्तक में हँस लिया, जिससे हाथोकी मृत्यु हो गयीं । मृत्युके समय हाथीके परिणाम बहुत हो शुभ रहे, जिससे वह महाशुक स्वर्गके स्वयंप्रभ विमान में देव हुआ । इधर वानरीने सर्पके उस कुकृत्यको देखकर पत्थरकी चट्टान गिरा कर उसे मार डाला, जिससे वह नरक गया। स्वर्ग के वैभव को देखकर तथा अवधिज्ञानसे अपने उपकारीको जानकर उसने भूमिपर अरविन्द मुनिके चरणोंकी पूजा की 1 पश्चात् स्वर्ग में रहकर दिव्य सुख भोगने लगा ।
- तृतीय सर्ग | विजया पर त्रिलोकोत्तम नामक नगर है । इस नगरका स्वामी विद्युद्वेग नामका विद्याधर था । इसकी पत्नी विद्युन्माला नामकी श्री । इस दम्पतिके यहाँ मरुभूतिका जीव स्वर्गसे च्युत हो रश्मिवेग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अति तेजस्त्री और सुन्दर था। एक दिन पूर्वजन्मका स्मरण हो जानेसे वह विरक्त. हो गया और समाधिगुप्त नामक मुनिके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। एक दिन मुनिराज रश्मिवेग हिमालय पर्वतकी गुफामें कायोत्सर्ग कर रहे थे कि कमठका जीव अजगर, जो कि नरकसे निकलकर अजगर पर्यायमें आया था, उनपर झपटा और उनके मस्तकमें काट लिया । मुनिराजने इस असह्य वेदनाको बहुत शान्तिपूर्वक सहन किया, जिससे उन्हें अच्युत स्वर्गकी प्राप्ति हुई । यहाँ विद्युत्प्रभके नामसे प्रसिद्ध हुए। उस अजगरने भी मरकर तमप्रभा नामक छठी भूमिमें जन्म ग्रहण किया ।
पश्चिम विदेह अश्वपुर नामक नगर में वज्रवीर्य शासन करता था । इसकी पत्नी विजया नामकी थी । कालान्तरमें विद्युत्प्रभ स्वर्गसे च्युत हो विजयाके गर्भसे वज्रनाभ नामका पुत्र हुआ । — चतुर्थ सर्ग | वज्रनाभ धीरे-धीरे बढ़ने लगा और कुछ ही समय में अस्त्र-शस्त्र में पारंगत हो गया। बाद में वह युवराजपद पर प्रतिष्ठित हुआ । का आनन्द लेता हुआ वज्रनाभ समय यापन करने लगा । आकर आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न होनेकी सूचना दी ।
वसन्तादि षड् ऋतुओं एक दिन किसीने - पंचम सर्ग ।
वज्रनाभने चक्र रत्नकी पूजा की और याचकोंको यथेष्ट दान देकर बह दिग्विजयके लिए तैयारियां करने लगा । उसने दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया। चक्रवर्ती वज्रनाभका प्रथम स्कन्धावार सीतोदा नदीके तटपर अवस्थित हुआ ।
९४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा