Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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डॉ० कीथने 'History of Sanskrit Literature' नामक ग्रन्यमें बताया है
"दक्षिणदेश निवासी कनकसेन वादिराज द्वारा रचित ऐसा ही काव्य है, जिसमें चार सगं और २२६ पद्य हैं। उनके शिष्य श्रीविजयका समय लगभग ९५० ई० है।"
इससे स्पष्ट है कि डॉ० कीथ वादिराजको सोमदेवसे पूर्ववर्ती मानते हैं और इनका समय दसवीं शतीका उत्तरार्द्ध सिद्ध करते हैं। हुल्त्स् ( Hultzsch ) ने लिखा है कि अजितसेन वादीभसिंह वादिराज द्वितीयक शिष्य थे और यादवराज ऐरेयंग तथा शान्तराज तेलगुके ( सन् ११०३ ई० ) गुरु थे।
डॉ० कीथने जिन कनकसेन वादिराजका उल्लेख किया है, वे प्रस्तुत वादिराजसे भिन्न काई पादराज हैं। हुस् द्वार: पिट मादिराज भी नाश्वनाथचरितके रचयितासे भिन्न ही कोई अन्य व्यक्ति हैं । प्रस्तुत वादिराज जगदेकमल्ल द्वारा सम्मानित हुए थे, अतः इनका समय सन् १०१० से १०६५ ई० प्रतीत होता है। यतः जगदेकमल्लका समय अनुमानतः सन् १०१८-१०३२ ई. के बीच होना चाहिये ।
पार्श्वनाथरिसके अतिरिक्त यशोधररित, एकीभावस्तोत्र,न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय रचनाएँ भी वादिराजकी प्राप्त हैं। रचनाओंका परिचय पाश्वनाथचरित
महाकाव्यकी दृष्टि से वादिराजका पार्श्वनाथचरित श्रेष्ठ काव्य है । इसमें बारह सर्ग हैं। कथावस्तु निम्न प्रकार है।
पोदनपुरमें अविन्दनामका एक अत्यन्त प्रतापी एवं थोनिलय राजा रहता था। यह नगर समृद्ध और महिमामण्डित था। राजा दानी, कृपाल और यशस्वी था । मन्त्री विश्वभूति विलक्षण गुणयुक्त या । उसने एक दिन राजासे निवेदन किया कि अब संसारके विषय-भोगोंसे मुझे वितृष्णा हो गयी है, अत: आत्मकल्याण करनेकी अनुमति प्रदान कीजिए । विश्वभूतिके प्रवजित होनेपर राजाने उसके छोटे पुत्र मरुभूतिको मन्त्री नियुक्त कर लिया । विश्वभूतिके बड़े पुत्रका नाम कमठ था।
एक समय बजवीर नामक प्रान्तिक शत्रु अरविन्दका विरोध करने लगा। उसे पराजित करनेके लिए अरविन्दके साथ मरुभूतिको भी जाना पड़ा और उसके बड़े भाई कमठको राजाने मन्त्रीपद पर प्रतिष्ठित किया। जब अरविन्द अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर चला, तो ब्रजवीरने भी सैनिकतैयारी की, पर उसकी सेना अरविन्दकी सेनाके समक्ष ठहर न सकी और विजयलक्ष्मी अरविन्द१. History of Sanskrit Literature (Oxford 1928 ), Page 142. २. Introduction of Yashodhar charita ( Dharwar 1963) P. 7. ९२ : वीर्यकर महाबीर और जनको आचार्गपरम्परा