Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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था कि उसकी दृष्टि पाश्वनाथ पर पड़ी। उसने पूर्वजन्मका स्मरण कर वाणवृष्टि की, पर वह तीर्थकरके प्रभावसे पुष्पवृष्टि बन गयी। धरणेन्द्र-पद्मावतीको जब भूतानन्दके उपद्रवोंका पता लगा, तो दोनों तत्क्षण वहाँ आये और प्रभुके उपसर्गका निवारण किया। भगवान्ने शुक्ल-ध्यान द्वारा धातियाकर्मोको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। देवोंके जय-जयनादको सुनकर भुतानन्द आश्चर्यचकित हो गया और वह तीर्थङ्करकी स्तुति करने लगा। ..यश सर्ग __इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने समवशरणकी रचना की । तिर्यञ्च, मनुष्यादि सभी भगवान्का उपदेश सुनने लगे। मानव-कल्याणका उपदेश सुनकर सभी प्राणी सन्तुष्ट हुए। रत्नत्रय और तत्त्वज्ञानकी अमृतवर्षा हुई। पश्चात् एक महीनेका योगनिरोध कर अघातियाकर्मोका भी नाश किया और निर्वाण-लक्ष्मी प्राप्त की।
-द्वादश सर्ग कथावस्तुका स्रोत और गठन
पार्श्वनाथकी परम्परा-प्रसिद्ध कथावस्तुको ही कविने अपनाया है । यह कथावस्तु उत्तरपूराणमें निबद्ध है। संस्कृत भाषामें काव्य रूपमें पाश्वनाथचरितको सर्वप्रथम गुम्फित करनेका श्रेय वादिराजको ही है । इनसे पूर्व जिनसेन द्वितीय (ई० सन् ९वीं शती) ने पार्वाभ्युदयमें इस चरितको संक्षेपमें निबद्ध किया है। समग्र जीवनकी कथावस्तु वहाँ नहीं आ पायी है। अपभ्रशमें पद्मकीर्तिने वि० सं० २९.२ (ई० सन् ९३५)में १८ सन्धियोंमें पासणाहचरिउकी रचना अवश्य की है। कवि वादिराजने उक्त अपभ्रश 'पासणाहचरिउ का अध्ययन किया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। वि० सं०११८९ (ई० सन् ११३२) में श्रीधरने १२ सन्धियोंमें अपभ्रश भाषामें एक अन्य ‘पासणाहरिउकी रचना की है । संस्कृत भाषामें (ई० सन् १२१९) माणिक्यचन्द्र द्वारा और सन् १२५५ ई०में भावदेवसूरि द्वारा पार्श्वनाथचरित नामक काव्य लिखे गये हैं। प्राकृत भाषामें पार्श्वनाथचरितका गुम्फन सर्वप्रथम अभयदेवके प्रशिध्य देवभद्रसूरि द्वारा वि० सं० ११६८ (ई० सन् ११११) में किया गया है । अतः काव्य रूपमें अपभ्रशके पासणाहरिउके पश्चात् संस्कृतमें वादिराजका ही चरितकाव्य उपलब्ध होता है। कथावस्तुका मूल स्रोत "तिलोयपण्णत्ती', 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' (वि० सं० ९२५, ई० सन् ८६८) एवं उत्तरपुराण (शक सं० ८२०, ई० सन् ८९८) हैं। उत्तरपुराणमें बताया गया है कि पार्श्वनाथ युवक होने पर क्रीड़ा करने वनमें गये। वहां उन्हें महीपाल नामक तापस पंचाग्नि तप करते मिला। यह पार्श्वनाथका मातामह था | चउप्पन्नमहापुरिसरियमें यही कथानक इस १. उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ७३ पर्व, पृ०-४२९-४४२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ९७