Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है कि धर्म-परीक्षा पहले जयरामद्वारा थाछन्दमें लिसी मामी, में इसे 'पद्धड़िया' छन्दमें लिख रहा हूँ। अमितगतिकी संस्कृत धर्म-परीक्षासे हरिषेणकी यह धर्म-परीक्षा २६ वर्ष पुरानी है। तृतीय हरिषेण कर्पूरप्रकार या सूक्तावलीके रचयिता हरिषेण या हरि हैं। इन्होंने बताया है कि नेमिचरित भी इन्हींके द्वारा लिखित है। त्रिषष्ठीसारप्रबन्धके रचयिता वज्रसेन उनके गुरु हैं। इनका स्थितिकाल सन्देहास्पद है । यदि ये वनसेन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितनामक अधूरे संस्कृतगद्य-ग्रन्थके रचयिता हों, तो इन्हें हेमचन्द्रके पश्चात् रखा जा मकता है और इस स्थितिमें इन हरिषेणका समय ई० सन्की १वीं शतीके पश्चात् अवश्य होगा। इनके समय-निर्धारणमें सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि वि० सं० १५०४ के पूर्व ये अवश्य वर्तमान थे, जब सोमचन्द्रने सूक्तावलीकी उदाहरणात्मक कहानियोंसे युक्त कथा-महोदधि नामक ग्रन्थ लिखा।
चतुर्थ हरिषेणका परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्य विद्या-शोध-संस्थान पूनाके एक हस्तलिखित ग्रंथसे प्राप्त होता है कि योनि-प्राभूतके प्राप्य न होनेके कारण विविध चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थोंके आधारपर जगतसुन्दरीयोगमलाधिकारकी रचना हरिषेण या पं० हरिषेणाने की है। इनके व्यक्तित्व और समय आदिका निर्णय उक्त पाण्डुलिपिके अध्ययनके पश्चात् ही सम्भव है। __पंचम हरिषेणका निर्देश प्रभञ्जनके साथ वासबसेनके 'यशोघरचरित' नामक ग्रन्थमें प्राप्त होता है। उद्योतनसरिने ई० सन् ७७८ में अपनेकुवलयमाला ग्रन्थमें प्रभञ्जनका उल्लेख किया है। गन्धर्वने वि० सं० १३६५ में वासवसेनरचित यशोधरचरितका उपयोग पुष्पदन्तके अपूर्ण 'जसहर रउ' को पूरा करतेमें किया था । मोमकीर्तिने भी वि० सं० १५३५ में रचित अपने यशोधरकाव्यमें इम हरिषेणका निर्देश दिया है।
पष्ठ हरिपेणका भी परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्य-विद्या-शोध-संस्थान, पूनाके एक हस्तलिखित ग्रन्यसे होता है। इन्होंने अष्टालिकाकथाकी रचना की थी। ये मूलसंघके आचार्य थे। और इनकी गुरुपरम्परामें रत्नकीर्ति, देवकीति, भीलभूषण और गणचन्द्रक वाद हरिषेणका नाम आया है 1
वृहत्वथाकोशके रचयिता हरिपेण इन मभी हरिषेणोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं। इन्होंने इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें लिखा है
यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषगद्धान्तवचोमयूरवैः । पुन्नाटसंघाम्बरसंनिवासी श्रीमोनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ।। जैनालयवातविराजितान्त चन्द्रावदाता तिसौधजालें ।
कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्धमानाख्यपुरे वसन् सः ।। - ४ . तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा