Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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करनेके उपरान्त रानी लोट आयी और यशोषरके साथ पलंग पर इस प्रकार चुपकेसे सो गयी, मानो कुछ हुआ ही न हो । ____ इस घटनासे यशोधरके मनको बड़ो चोट लगी। उसका दिल चूर-चूर हो गया । संसारको असारता उसके समक्ष नृत्य करने लगी। वह नारीजातिके छल-कपटके सम्बन्धमें बार-बार सोचने लगा । जित्तना ही वह सोचता जाता था, उतना ही उसका मन घृणासे भरता चला जाता था। प्रात:काल होनेपर यशोधर राजसभामें पहंचा, तो उसकी माता चन्द्रमतीने उसे उदास देखकर पूछा--"वत्स ! तुम्हारी उदासीका क्या कारण है ? आज तुम्हारा मुख म्लान क्यों हो रहा है ?" यशोधरने बात टालनेकी दृष्टिसे कहा-“वाज मैंने रात्रिके अन्तिम प्रहर में एक भयंकर स्वप्न देखा है। मैं अपने पुत्र यशोमतिको राज्य देकर संन्यस्त हो गया हूँ। शत्रु मेरे राज्य पर आक्रमण कर रहे हैं और यशोमति उन शत्रुओंका सामना करनेमें असमर्थ है।" ___ "अतएव हे माता ! मैं अब अपनी कुलपरम्पराके अनुसार राजकुमारको सिंहासन देकर दिगम्बर मुनि होना चाहता हूँ।" पुत्रके इन वचनोंको सुनकर राजमाता अत्यन्त चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी चण्डमारीके मन्दिरमें बलि चढ़ाकर स्वप्नकी गादि करानेका माय बन्नुस्मा : मनोपर पल्सिाके लिए किसी भी मूल्य पर तैयार नहीं हुआ, तो राजमाताने कहा कि आटेका मुर्गा बनाकर उसीको बलि करेंगे। यशोधरको विवश होकर यह मानना पड़ा। उसने विचार किया कि "कहीं राजमाता मेरे द्वारा अवज्ञा होने पर कोई अनिष्ट न कर बैठे। अतएव मुझे माँकी बात स्वीकार कर लेनी चाहिये।" एक ओर चण्डमारिके मन्दिरमें बलिका आयोजन होने लगा और दूसरी ओर कुमार यशोमतिक राज्याभिषेककी तैयारियां होने लगीं। ____ अमृतमतीको जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तो भोतरसे वह प्रसन्न हुई, पर दिखावा करती हुई कहने लगी--"स्वामिन् ! मुझे छोड़कर आप संन्यास लें, यह उचित्त नहीं। अतः कुपाकर मुझे भी अपने साथ ले चलें।"
यशोधर कुलटा रानीकी विठाईसे तिलमिला उठा । उसके मनको गहरी व्यथा हुई, फिर भी वह शान्त रहा । मन्दिर में जाकर उसने आटेके मुर्गेको बलि चढ़ायी। इससे उसकी मां तो प्रसन्न हुई, किन्तु रानीको दुःख हुआ कि कहीं राजाका वैराग्य क्षणिक न हो। अतएव उसने बलि किये हुए बाटेके मर्गके प्रसादको बनाते समय, उसमें विष मिला दिया। जिसके सानेसे यशोधर और उसकी माँ दोनोंकी मृत्यु हो गयी।
-चतुर्व बाश्वास मृत्युके बाद मां और पुत्र दोनों ही छह बन्मों तक पशुयोनिमें भटकते
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोचकापार्य : ८५