Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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रहे । प्रथम जन्ममें यशोधर मोर हुआ और उसकी माँ चन्द्रमती कुत्ता ! दुसरे जन्ममें यशोधर हिरण हुआ और चन्द्रमती सर्प । तृतीय जन्ममें वे दोनों शिप्रा नदीमें जल-जन्तु हुए। यशोधर एक बड़ी मछली हुआ और चन्द्रमती एक मगर । चतुर्थ जन्ममें दोनों बकरा बकरी हुए। पञ्चम जन्ममें यशोधर पुनः बकरा हुआ और चन्द्रमती कलिंगदेशमें भैंसा हुई । छठे जन्ममें यशोधर मुर्गा और चन्द्रगती मुर्ती हुई।
मुर्गा-मुर्गीका मालिक वसन्तोत्सवमें कुक्कुट युद्ध दिखानेके लिए उन्हें उज्जयिनी ले गया । यहाँ सुदत्त नामके आचार्य ठहरे हुए थे । उनकं उपदेशसे उन दोनोंको अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण हो गया और उन्हें अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा । अगले जन्ममें वे दोनों मरण कर राजा यशोमतिके यहाँ उसकी रानी कुसुमावलिके गर्भसे युगल भाई-बहनके रूपमें उत्पन्न हुए । उनके नाम कमशः अभयचि और अभयमति रखे गये। एक बार राजा यशोमति सपरिवार आचार्य सुदत्तकं दर्शन करने गया और वहां अपने पूर्वजोंकी परलोक यात्रा के सम्बन्ध में प्रश्न किया। आचार्य सुदत्तनें अपने दिव्यज्ञानके प्रभावसे बतलाया कि तुम्हारे पितामह् यशोधं अथवा यशबन्धु अपने तपश्चरणके प्रभावसे स्वर्ग में सुख भोग रहे हैं और तुम्हारी माता अमृतमती विष देनेके कारण नरक में वास कर रही है। तुम्हारे पिता यशोधर तथा उनको माता चन्द्रमती आके मुर्गे की बलि देनेके पापके कारण छह जन्मों तक पशु योनिमें भ्रमण कर अपने पापका प्रायश्चित्त कर तुम्हारे पुत्र और पुत्रोके रूपमें उत्पन्न हुए हैं। आचार्य सुदत्तने उनके पूर्वजन्म की यह कथा सुनायी, जिसे सुनकर उन बालकोंको संसारके स्वरूपका ज्ञान हो गया और इस भयसे कि बड़े होनेपर पुन: संसारचक्रमें न फँस जायें, उन्होंने कुमारकालमें ही दीक्षा ले ली। इतना कहकर अभयरुचिने कहा - "राजन् ! हम दोनों वही भाई-बहन हैं। हमारे वे आचार्य सुदत्त इसो नगरके पास ठहरे हुए हैं । हम लोग उन्होंकी आज्ञा लेकर भिक्षाके लिए नगर में आये थे कि आपके कर्मचारी हमें पकड़ कर यहाँ ले आये ।"
- पञ्चम आश्वास
आगेको कथावस्तुमें बताया गया है कि मारिदत्त यह वृत्तान्त सुनकरें आश्चर्यचकित हुआ और कहने लगा- "मुनि कुमार हमें शीघ्र ही अपने गुरुके निकट ले चलो। मुझे उनके दर्शनोंकी तीव्र उत्कंठा है । सभी लोग आचार्य सुदत्तके पास पहुंचे और उनके उपदेशसे प्रभावित होकर धर्म में दीक्षित हो गये ।
इस कथावस्तुके पश्चात् अन्तिम तीन आश्वासोंमें उपासकाध्ययनका वर्णन है, जो ४६ कल्पों में विभाजित है । प्रथम कल्पका नाम समस्तसमयसिद्धान्ता
८६ तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्यपरम्परा