Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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(२८) विवाद, (२९) षाड्गुण्य, (३०) युद्ध, (३१) विवाह और (३२) प्रकरण हैं। धर्मसमुद्देश्यमें धर्मका लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि
'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः' अर्थात् जिसके साधनसे स्वर्ग व मोक्षको सिद्धि हो वह धर्म है। धर्माधिगमोपायमें शक्तिके सनुसार त्याग, तपको स्थान दिया है। समस्त प्राणियोंके प्रति समताभावके आचरणको परमाचरण बताया है। जो व्यक्ति सभी प्रकारके भेदभाव और पक्षपातोका त्याग कर प्राणिमात्रके प्रति समताभावका आचरण करता है, संसारमें उसका कोई भी शत्रु नहीं रहता, सभी मित्र बन जाते हैं। समताभावक आचरणसही राग-दुषका अभाव होता है और व्यक्तिके व्यक्तित्वका विकास होता है । अतएव अहिंसावतके आचरणके लिये समताभावका निबाह करना परमावश्यक है। दान देना, शक्ति अनुसार त्याग करना भी धर्माचरणके अन्तर्गत है । ग्रन्थकारने पात्र तीन प्रकारके बतलाये है- १ धर्मपात्र, २ कार्यपात्र और ३ कामपात्र । इन तीनों प्रकारके पात्रोंकी आर्थिक सहायता करना धर्मके अन्तर्गत है। ग्रन्थकारने लौकिक जीवनको समद्ध बनानेके लिये त्याग, तप और समताके आचरणपर विशेष बल दिया है। तपकी परिभाषा बताते हुए लिखा है कि इन्द्रिय और मनका नियमानुकूल प्रवतम करना तप है, केवल कापाय वस्त्र धारणकर बनमें विचरण करना तप नहीं है। यथा
इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठान तपः। xx
विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः' ।। धर्मका स्वरूप और धर्माचरणका महत्त्व सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है। इसके बाद अर्थपुरुषार्थका विस्तारसे विचार किया है। सोमदेवने धर्म, अर्थ और कामको समान महत्त्व दिया है। इनका अभिमत है--
धर्मार्थाविरोधेन काम सेवेत तत: सुखो स्यात् ।
समं
वा
त्रिवर्ग
सेवेत ।
१. नीतिवा, सूत्र सं० २०, २१ । २. वही, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, कामरामुद्देश्य, सूत्रसं० २, ३ । ७४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा