Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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और सिन्धुराज या सिन्धुलके महामात्य पर्पटने जिनके चरणकमलोंकी पूजा की थी । इन्हीं महासेनने पद्य म्नर्धारित' काव्यकी रचना को और राजाके अनुचर विवेकवान् मघनने इसे लिखकर कोविदजनोंको' दिया ।
प्रद्युम्नचरितके प्रत्येक सर्गके अन्त में आनेवाली पुष्पिकामे -- "श्री सिन्धुराज सत्कमहामहत्तश्रीपप्पटगुरोः पण्डित श्रीमहासेनाचार्यस्य कृतं लिखा मिलता है, जिससे यह ध्वनित होता है कि सिन्धुलके महामात्य पर्यटकी प्रेरणासे ही प्रस्तुत काव्य निर्मित हुआ है।
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लाट-वर्गसंघ माधुसंघके हो समान काष्ठासंघकी शाखा है । यह संघ गुजरात और राजपूताने में विशेष रूपसे निवास करता था । कवि आचार्य महासेन पर्पटके गुरु थे । इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य महासेनका व्यक्तित्व अत्यन्त उन्नत था और राजपरिवारोंमें उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी ।
स्थितिकाल
'प्रद्यनचरित' को प्रशस्ति में काव्यके रचनाकालका निर्देश नहीं किया गया, पर मुञ्ज और सिन्धुलका निर्देश रहनेसे अभिलेख और इतिहासके साक्ष्य द्वारा निर्णय करनेकी सुविधा प्राप्त है | इतिहासमें बतलाया गया है कि मुञ्ज वि०स० १०३१ (ई० सन् १७४ ) में परमारोंकी गद्दी पर आसीन हुआ। उदयपुरके अभिलेखसे विदित होता है कि उसने लाटों, कर्नाटकों, चोलों और केरलोंको अपने पराक्रमसे त्रस्त कर दिया था। मुञ्जके दो दानपत्र वि० सं० १०३१ ( ई० सन् ९७४ ) और वि० सं० १०३६ ( ई० सन् ९७९ ) के उपलब्ध हुए हैं । कहा जाता है कि ईस्वी सन् ९९३-९९८ के बीच किसी समय तलपदेवने उनका बध किया था । इन्हीं मुञ्जके समय में वि० सं० १०५० ( ई० सन् ९९३ ) में अमितगतिने 'सुभाषिनरत्नसंदोह समाप्त किया था।
मुञ्ज या वाक्पतिका उत्तराधिकारी उसका अनुज सिन्धुल हुआ । इसका दूसरा नाम नवसाहसांक या सिन्धुराज है। इसके यशस्वी कृत्योंका वर्णन पद्मगुप्तने नवसाहसांकचरितमें किया है। इसी सिन्धुलका पुत्र भोज था, जिसका मेरुतुंगको 'प्रबन्धचिन्तार्माण' में वर्णन पाया जाता है । अतएव प्रद्युम्नचरितकी | जैन साहित्य इतिहास, द्वितीय संस्करण,
१. श्रीलाट-वर्गटनभस्तलपूर्ण चन्द्र
० ४१५ ।
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२. डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भारतका इतिहास, बनारस, १९५६ ई० पू० २८३ । ३. अम ( संवत् १०७८ वर्ष ) यदा मालवमण्डले श्रोभोजराजा राज्यं चकार ---प्रबन्धचिन्तामणि, सिमी सिरीज १९३३ ई० भोज भीमप्रबन्ध, पृ० २५ । पञ्चाशत्पञ्चवर्षाणि मासाः सप्तदिनत्रयम् 1
भोक्तभ्यं भोजराजेन गोहं दक्षिणापथम् ॥
वही, पृ० २२ ।
५६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
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