Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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इससे अवगत होता है कि आचार्य वीरनन्दि वादिराज ( ईस्वी सन् १०२५ । से पूर्ववर्ती हैं और उनका चन्द्रप्रभचरित रचा जा चुका था ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने इन्द्रनन्दिको अपना गुरु लिखा है तथा वीरनन्दि इन्हीं इन्द्रनन्दिके सहाध्यायी हैं | अतः प्रतीत होता है कि इन्द्रनन्दि और वीरनन्द्रि नेमिचन्द्रके समकालीन हैं । आचार्य नेमिचन्द्रने अपने गोम्मटसारकी रचना गङ्गवंशीय राजा राचमलके प्रधानमन्त्री और सेनापत्ति चामुण्डरायकी प्रेरणासे की है। राचमलके भाई रक्वास गंगराजने शक संवत् २०६-१२१ (ई. सन् ९८४-९९९ ) तक राज्य किया है । कन्नड़के महाकवि रन्नने शक संवत् ९१५ ( ई० सन् ९८३ ) में पुराणतिलक नामक ग्रन्थको रचना की हैं और उसने अपनेको रक्कम गंगराजका आश्रित लिखा है । चामुण्डराय द्वारा श्रवणवेलगोलको प्रसिद्ध गोम्मटस्वामीकी मूर्ति १३ मार्च सन् ९८१ ई० में प्रतिष्ठित हुई ।। अतः इन समस्त संदर्भोके प्रकाश में लौरनधिका समय ३० सन् १०२५ से पूर्व और ई० सन् ९०० के बाद अर्थात् १५०-२९९. सिद्ध होता है | रसना-परिचय __आचार्य बोरनन्दिको एकमात्र रचना चन्द्रप्रभचरित है, जो उपलब्ध तथा प्रकाशित है। इस महाकाव्यमें १८ सर्ग और १६९७ पद्य हैं । कविने संस्कृतके सभी प्रसिद्ध छन्दोंका इसमें प्रयोग किया है। आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभका इसमें जीवन-चरित वर्णित है। रचना बड़ी मरम और हृदयग्राही है। सभी रस और अलङ्कार इसमें समाहित हैं। प्रसङ्गतः सिद्धान्तका प्रतिपादन भी असाधारण और बहुबोधवर्धक है । याक्कधर्म और मुनिधर्मका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। अतएक वीरनन्दिकी यह महत्वपूर्ण कृति न केवल काव्यत्त्वकी दष्टिसे उल्लेखनीय है, अपितु धर्म, दर्शन, आचार आदिकी दृष्टि से भी समृद्ध है। यतः इसको कथावस्तु तीर्थकरसे सम्बद्ध है, अतः यह और भी अधिक रोचक है |
महासेनाचार्य महासेन लाट-वर्गट या लाड़-वागड़ संघके आचार्य थे। प्रद्युम्नचरितकी कारज्ञाभंडारको प्राप्तमें जो प्रशस्ति दी हुई है, उससे ज्ञात होता है कि लाटवर्गट संघमें सिद्धान्तोके पारगामी जयसेन मुनि हुए और उनके शिष्य गुणाकरसेन । इन गुणाकरसेनके शिष्य महासेनसूरि हुए, जो राजा मुज द्वारा पूजित थे १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-६, किरण-४, श्रवणबेलगोल एवं यहाँकी गोम्मट मूर्ति,
पृ. २०५ तथा इसी अंकम गोम्मट मूर्तिकी प्रतिष्ठाकालीन मूर्तिका फल । २. इसका एक संस्करण निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे सन् १९२६ में निकला और दूसरा
संस्करण जीवराज जैन ग्रन्यमाला सोलापुरसे सन् १९७१ में प्रकट हुवा है।
प्राचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ५५