Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
तिलोयपण्णत्ती
[१. १३
करितुरयरहाहिवई सेणवइपदत्तिसेट्ठिदंडवई । सुद्दक्खत्तियवइसा हवंति तह महयरा पवरा ॥ ४३ गणरायमंतितलवरपुरोहियामत्तया महामत्ता । बहविहपइण्णया य अटारस होति सेणीओ'॥४४ पंचसयरायसामी अहिराजो होदि कित्तिभरिददिसो । रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महराजो ॥ ४५ दुसहस्समउडबद्धभुववसहो तत्थ अद्धमंडलिओ । चउराजसहस्साणं अहिणाओ होइ मंडलिओ' ॥ ४६ महमंडलिओ णामो अट्टसहस्साण अहिवई ताणं । रायाणं अद्धचक्की सामी सोलससहस्समेत्ताणं ॥ ४७ छक्खंडभरहणाहो बत्तीससहस्समउडबद्धपहदीओ । होदि ह सयलंचकी तित्थयरो सयलभुवणवई ।। ४८१
। अन्भुदयसोक्खं गदं । सोक्खं तित्थयराणं कप्पातीदाण तह य इंदियादीदं । अतिसयमादसमुत्थं णिस्सेयसमणुवमं परं ॥ ४९
।मोक्खसोक्खं गदं। सुदणाणभावणाए णाणमत्तंडकिरणउज्जोओ। आदं चंदज्जलं चरित्तं चित्तं हवेदि भग्वाणं ॥ ५०
हस्ति, तुरंग [ घोडा ] और रैथ, इनके अधिपति, सेनापति, पदोति [ पादचारी सेना] श्रेष्ठिं [ सेठ ], दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य, महत्तर, प्रवर अर्थात् ब्राह्मण, गणराज, मन्त्री, तलेवर [ कोतवाल ], पुरोहित, अमात्य और महामात्य व बहुत प्रकारके प्रकीर्णक, ऐसी अठारह प्रकारकी श्रेणियां हैं ॥ ४३-४४॥
___ जो पांचसौ राजाओंका स्वामी हो वह अधिराज है। उसकी कीर्ति सारी दिशाओंमें फैली रहती है । जो एक हजार राजाओंका पालन करता हो वह महाराज है ॥ ४५ ॥
जो दो हजार मुकुटबद्ध भूपोंमें वृषभ अर्थात् प्रधान हो [ उनका स्वामी हो ] वह अर्धमण्डलीक कहलाता है । जो चार हजार राजाओंका अधिनाथ हो, वह मण्डलीक कहलाता है ॥ ४६॥
जो आठ हजार राजाओंका अधिपति हो, उसका नाम महामण्डलीक है । सोलह हजार राजाओंका स्वामी अर्धचक्री कहलाता है ॥ ४७ ॥
जो छह खण्डरूप भरतक्षेत्रका स्वामी हो और बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओंका तेजस्वी अधिपति हो वह सकलचक्री होता है; व तीर्थकर समस्त लोकोंका अधिपति कहलाता है ॥४८॥
इसप्रकार अभ्युदय सुखका कथन हुआ । तीर्थकर [ अरिहन्त ], और कल्पातीत अर्थात् सिद्ध, इनके अतीन्द्रिय, अतिशयरूप आत्मोत्पन्न, अनुपम और श्रेष्ठ सुखको निःश्रेयस-सुख कहते हैं ॥ ४९ ।।
___ इसप्रकार मोक्षसुखका कथन हुआ । श्रुतज्ञान की भावनासे भव्यजीवोंका आत्मा ज्ञानरूपी सूर्य की किरणोंसे उद्योतरूप अर्थात् प्रकाशमान होता है, और उनका चरित्र और चित्त चन्द्रमाके समान उज्ज्वल होता है ॥ ५० ॥
१द बसेणेओ. २द बद्धासवसहो. ३ द ब मंडलियं.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org