Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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तिलोयपण्णत्ती
[ ४.७६०
एकेकाएं णयसालाए दोणि दोणि धूवघडा । णाणासुगंधधूवप्पसरेणं वासियदिगंता ॥ ७६०
। गट्ठयसाला समत्ता ।। णियणियपढमखिदीए बहुमझे चउसु वीहिमज्झम्मि ।
माणथंभखिदीमों समवटा विविहवण्णणसहामओ । ७६१ भन्भंतरम्मि ताणं चउगोउरदारसुंदरा साला । णञ्चतधयवडाया मणिकिरणुज्जोइअदियंता ॥ ७६२ ताणं पि ममभागे वणसंडा विविहदिग्वतरुभरियाँ । कलकोइलकलकलया किण्णरमिणेहि संकिण्णा ॥ ७६१ तम्मज्झे रम्माइं पुव्वादिदिसासु लोयपालाणं । सोमजमवरुणधणदा होंति महाकीडणपुराई ॥ ७६४ ताणभंतरभागे साला चउगोउरादिपरियरिया । तत्तो वणवावीओ कलिंदवरमाणणसहाओ ॥ ७६५ ताणं ममे णियणियदिसासु दिव्वाणि कीडाणपुराणि । हुदवहणेरिदमारुदईसाणाणं च लोयपालाणं ॥ ७६६ ताणब्भंतरभागे सालाओ वरविसालदाराओ । तम्मझे पीढाणिं एक्केके समवसरणम्मि ॥ ७६७ वेरुलियमयं पढमं पीढं तस्सोवरिम्म कणयमयं । दुइयं तस्स अ उवरिं तदियं बहुवण्णरयणमयं ॥ ७६८
प्रत्येक नाट्यशालामें नाना प्रकारकी सुगन्धित धूपके प्रसारसे दिङ्मण्डलको सुवासित करनेवाले दो दो धूपघट रहते हैं ॥ ७६० ॥
नाट्यशालाओंका वर्णन समाप्त हुआ। अपनी अपनी प्रथम पृथिवीके बहुमध्यभागमें चारों वीथियोंके बीचोंबीच समान गोल और विविध प्रकार वर्णनके योग्य मानस्तम्भ-भूमियां होती हैं ।। ७६१ ॥
उनके अभ्यन्तर भागमें चार गोपुरद्वारोंसे सुंदर, नाचती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित और मणियोंकी किरणोंसे दिङ्मण्डलको प्रकाशित करनेवाले कोट होते हैं ॥ ७६२ ।।
इनके भी मध्यभागमें विविध प्रकारके दिव्य वृक्षोंसे युक्त, सुन्दर कोयलोंके कल-कल शब्दोंसे मुखरित और किन्नर-युगलोंसे संकीर्ण वनखंड होते हैं ॥ ७६३ ॥
इनके मध्यमें पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमसे सोम, यम, वरुण और कुबेर, इन लोकपालोंके रमणीय महा क्रीडानगर होते हैं ॥ ७६४॥
उनके अभ्यन्तर भागमें चार गोपुरादिसे वेष्टित कोट और फिर इसके आगे वनवापिकायें होती हैं जो प्रफुल्लित नीलकमलोंसे शोभायमान हैं ॥ ७६५ ॥
उनके बीचमें लोकपालोंके अपनी अपनी दिशा तथा आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ईशान, इन विदिशाओंमें भी दिव्य क्रीडन-पुर होते हैं ॥ ७६६ ॥
उनके अभ्यन्तर भागमें उत्तम विशाल द्वारोंसे युक्त कोट होते हैं और फिर इनके बीच में पीठ होते ह । ऐसी रचना प्रत्येक समवसरणमें होती है ॥ ७६७ ।।
इनमेंसे पहिला पीठ वैडूर्यमणिमय, उसके ऊपर सुवर्णमय द्वितीय पीठ, और उसके भी ऊपर बहुत वर्णके रत्नोंसे निर्मित तृतीय पीठ होता है ॥ ७६८ ॥
१ दब एकेकाणं. २ द ब खिदीए. ३ द मणिकरणुज्जोइअधियंतो, ब मणिकरणुज्जोइअदियंते. ४द दिवतरुवरिया. ५दव 'मिहणाणि. ६ब एककं.
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