Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 499
________________ ४३२] तिलोयपण्णत्ती [४.२२७७ णरणारीणिवहेहिं वियक्खणेहिं विचित्तरूवेहिं । वररयणभूसणेहिं विविहहिं सोहिदा णयरी ॥ २२७७ णयरीए चक्कवट्टी तीए चेटेदि विविहगुणखाणी । आदिमसंहडणजुदो समचउरस्संगसंठाणो' ॥ २२७८ कुंजरकरथोरभुवो रविंदुवरतेयपसरसंपुण्णो । इंदो विव आणाए सोहग्गेणं च मयणो वें ॥ २२७९ धणदो विव' दाणेणं धीरेणं मंदरो व्व सो होदि । जलही विव अक्खोभो पुहपुहविक्किरियसत्तिजुदो ॥२२८० पंचसयचावतुंगो सो चक्की पुवकोडिसंखाऊ । दसविहभोगेहिं जुदो सम्माइट्टी विसालमई ॥ २२८१ अजाखंडाम्मि ठिदा तित्थयरा पाडिहरसंजुत्ता । पंचमहाकल्लाणा चोत्तीसातिसयसंपण्णा ॥ २२८२ सयलसुरासुरमहिया णाणाविहलक्खणेहि संपुण्णा । चक्कहरणमिदचलणा तिलोयणाहा पसीदंतु ॥ २२८३ अमरणरणमिदचलणा भव्वजणाणंदणा पसण्णमणां । अट्टविहरिद्धिजुत्ता गणहरदेवा ठिदा तस्सि ॥ २२८४ अणगारकेवलिमुणीवरडिसुदकेवली तधा तस्सि । चेदि चाउध्वण्णो तस्सि संघो गुणगणड्डो ॥ २२८५ बलदेववासुदेवा पडिसत्तू तत्थ होति ते सव्वे । अण्णोण्णबद्धमच्छरपयट्टघोरयरसंगामा ॥ २२८६ वह नगरी बुद्धिमान् विचित्ररूप और उत्तम रत्नोंके भूषणोंसे भूषित ऐसे अनेक प्रकारके नर-नारियोंके समूहोंसे शोभित है ॥ २२७७ ॥ __उस नगरीमें अनेक गुणोंकी खानिस्वरूप चक्रवर्ती निवास करता है। यह चक्रवर्ती आदिके वज्रर्षभनाराचसंहननसे सहित, समचतुरस्ररूप शरीरसंस्थानसे संयुक्त, हाथीके शुंडादण्ड. समान स्थूल भुजाओंसे शोभित, सूर्य व चन्द्रमाके समान उत्कृष्ट तेजके विस्तारसे परिपूर्ण, आज्ञामें इन्द्र जैसा, सुभगतासे मानों कामदेव, दानसे कुबेरके समान, धैर्यगुणसे सुमेरुपर्वतके सदृश, समुद्रके समान अक्षोभ्य और पृथक् पृथक् विक्रियाशक्तिसे युक्त होता है ॥२२७८-२२८० ।। वह चक्रवर्ती पांचसौ धनुष ऊंचा, पूर्वकोटिप्रमाण आयुसे सहित, दश प्रकारके भोगासे युक्त, सम्यग्दृष्टि और विशाल बुद्धिका धारक होता है ॥ २२८१ ॥ आर्यखण्डमें स्थित, प्रातिहार्योंसे संयुक्त, पांच महाकल्याणकोंसे सहित, चौंतीस अतिशयासे सम्पन्न, सम्पूर्ण सुरासुरोंसे पूजित, नाना प्रकारके लक्षणोंसे परिपूर्ण, चक्रवर्तियोंसे नमस्कृत चरणवाले और तीनों लोकोंके अधिपति तीर्थंकर परमदेव प्रसन्न होवें ॥ २२८२-२२८३ ॥ जिनके चरणों में देव व मनुष्य नमस्कार करते हैं, तथा जो भव्य जनोंको आनन्ददायक, प्रसन्नचित्त, और आठ प्रकारकी ऋद्धियोंसे युक्त हैं, ऐसे गणधरदेव उस आर्यखण्डमें स्थित रहते हैं ॥ २२८४ ॥ उस आर्यखण्डमें अनगार, केवलीमुनि, परमर्द्धिप्राप्तऋषि और श्रुतकेवली, इसप्रकार गुणसमूहसे युक्त चातुर्वर्ण्य संघ स्थित रहता है ॥ २२८५ ।। ___ वहांपर बलदेव, वासुदेव और प्रतिशत्रु ( प्रतिवासुदेव ) होते हैं । ये सब परस्परमें बांधे हुए मत्सरभावसे घोरतर संग्राममें प्रवृत्त रहते हैं ॥ २२८६ ॥ ( संदृष्टि मूलमें देखिये) १ द ब संठाणं. २ द ब भुवा. ३ द ब रविंदवर.......संपुण्णा. ४ द व मयणव्व. ५ द ब धणद . पिव. ६ दब जुदा. ७ द ब मुणिवरा". Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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