Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 569
________________ ५९२] तिलोयपण्णत्ती [ ४.२८०३ सगसगसलायगुणिदं होदि पुढं भरहपहदिविजयाणं । इच्छिदपदेसरुंदा तहिं तहिं तिणि णियमेणं ॥ २८०३ महवाभरहादिसु विजयाणं बाहिररुंदम्मि आदिम रुंदं । सोहिय अडलक्खहिदे खयबड्डी इच्छिदपदेसे ॥ २८०४ एकत्तालसहस्सा पंचसया जोयणाणि उणसीदी । तेहत्तरिउत्तरसदकलाओ अभंतरे भरहरुंदं ॥ २८०५ ४१५७९ । १७३ २१२ भरहस्स मूलरुंदं चउगुणिदे होदि हेमवदभूएं। अभंतरम्मि रुंदं तह हरिवरिसस्स चउगुणिदं ॥ २८०६ १६६३१९। ५६६६५२७७ । १२ २१२ हरिवरिसो चउगुणिदो रुंदो अब्भंतरे विदेहस्स । सेसवरिसाण रुंदं पत्तेकं चउगुणा हाणी ॥ २८०७ २६६११०८।४८ ६६५२७७ । १२ | १६६३१९। ५६ | ४१५७९ । १७३ २१२ २१२ २१२ २१२ एवं सगसगविजयाणं आदिमरुंदपहुदीमओ। बाहिरचरिमपदेसे रुदंतिम ति वत्तब्वं ॥ २००८ गुणा करनेपर नियमसे भरतादिक क्षेत्रोंका वहां वहां इच्छित स्थानमें (आदि, मध्य और अन्तमें) तीनों प्रकारका विस्तारप्रमाण होता है ॥ २८०२-२८०३ ॥ ९१७०६०५ - ३५५६८४ : २१२ x १ = ४१५७९३१३ भ. क्षे. का आदिविष्कम्भ । अथवा भरतादिक क्षेत्रोंके बाह्य विस्तारमेंसे आदिम विस्तारको घटाकर जो शेष रहे उसमें आठ लाखका भाग देने पर इच्छित स्थानमें क्षय-वृद्धिका प्रमाण आता है ॥ २८०४ ॥ ६५४४६२१३ - ४१५७९३९३८००००० = ४२१६४९४ हा. वृ.। इकतालीस हजार पांचसौ उन्यासी योजन और एकसौ तिहत्तर भाग अधिक भरतक्षेत्रका अभ्यन्तरविस्तार है ॥ २८०५ ॥ ४१५७९३१३।। भरतक्षेत्रके मूलविस्तारको चारसे गुणा करनेपर हैमवतक्षेत्रका अभ्यन्तरविस्तार और इसको भी चारसे गुणा करनेपर हरिवर्षका अभ्यन्तरविस्तार होता है ॥ २८०६ ।। हैमवत १६६३१९३२६ । हरि ६६५२७७३१३ ।। हरिवर्षक्षेत्रके विस्तारको चारसे गुणा करनेपर विदेहक्षेत्रका अभ्यन्तरविस्तार होता है। फिर इसके आगे शेष क्षेत्रोंके विस्तारमें क्रमशः चतुर्गुणी हानि होती गई है ॥ २८०७॥ विदेह २६६११०८१५ । रम्यक ६६५२७७१३ । हैरण्यवत १६६३१९५३ । ऐरावत ४१५७९२ १३ । ... इसप्रकार अपने अपने क्षेत्रोंका आदिम विस्तार आदि है । अब बाह्य चरम प्रदेशपर इनका अन्तिम विस्तार कहा जाता है ॥ २८०८ ॥ १ द ब हेमवभूये. २ द ब बाहिरदुचरिमपदेसे रुंदंतिवत्ति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598