Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 595
________________ ५२८ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. २९६० तीदसमयाण संखं पणसयबाणउदिरूवसंगुणिदं । अडसमयाधियछम्मासयभजिदं णिवदा सम्वे ॥ २९६० अ ५९२ । मा ६। । एवं णिउदिगमणपरिमाणं समत। संसारण्णवमहणं तिहुवणभन्वाण पेम्मसुहजणणं । संदरिसियसयलटुं सुवासणाई णमंसामि ॥ २९६१ एवमाइरियपरंपरान्यतिलोयपण्णत्तीए मणुवजगसरूवनिरूवणपण्णत्ती णाम चउत्थो महाहियारो समत्तो॥ ४॥ अतीतकालके समयोंकी संख्याको पांचसौ बानवे रूपोंसे गुणित करके उसमें आठ समय अधिक छह मासोंका भाग देनेपर लब्ध राशिप्रमाण सब निवृत्त अर्थात मुक्त जीव हैं ॥ २९६० ॥ अतीतसमय x ५९२ ’ ६ मास ८ समय = मुक्त जीव । इसप्रकार सिद्धगतिको प्राप्त होनेवालोंका प्रमाण समाप्त हुआ। __संसाररूप समुद्रके मथन कर्ता, तीनों लोकोंके भव्योंको प्रेम एवं सुखके जनक, तथा सम्पूर्ण पदार्थोंके दर्शक सुपार्श्वनाथस्वामीको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २९६१ ॥ इसप्रकार आचार्यपरंपरागत त्रिलोकप्रज्ञप्ति में मनुष्यलोकस्वरूप निरूपण करनेवाला चतुर्थ महाधिकार समाप्त हुआ। १द ब अडसमयाविय छम्मासयम्मि भजिदं हिम्मदा. २ ब-पुस्तके ' मा ६' इति नास्ति. ३ द व समत्ता. ४ द ब संसारण महण्णं. ५ द ब पेम्मदुइजलणं. ६ ब परंपरायगय . ७ द ब जगपदावण्णित्ते वणसंपण्णत्ती. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 593 594 595 596 597 598