Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 594
________________ -४. २९५९ ] चउत्थो महाधियारो [५२७ एवं सामण्णेसु होति मणुस्साण अट्ठ जोणीसुं । एदाणं विसेसाणिं चोइसलक्खाणि भजिदाणि ॥ २९५३ ।जोणिपमाणं गई। छन्वीसजुदेवकसेयप्पमाणभोगक्खिदीण सुहमक्कं । कम्मखिदीसु णराणं हवेदि सोक्खं च दुक्खं च ॥ २९५४ ।सुखदुक्खं गदं। केइ पडिबोहणेणं केइ सहावेण तासु भूमीसुं । दट्टणं सुहदुक्खं केइ मणुस्सा बहुपयारं ॥ २९५५ जादिभरणेण केई केइ जिणिंदस्स महिमदंसणदो । जिणबिंबदसणेणं उवसमपहुदीणि केइ गेण्हति ॥ २९५६ ।सम्मत्तं गदं। एक्कसमयं जहण्णं दुतिसमयप्पहुदि जाव छम्मासं । वरविरहं मणुबजगे उवरि सिझंति अडसमए ॥ २९५७ पत्तेक्कं अडसमए बत्तीसडदालसट्ठिदुयसदार । चुलसीदी छण्णउदी दुचरिमम्मि अटुअघियसयं ॥ २९५८ सिझंति एक्कसमए उक्कस्से अवरयम्मि एक्केक्कं । मज्झिमपडिवडीए चउहत्तरि सव्वसमएसुं॥ २९५९ इसप्रकार मनुष्योंके सामान्य योनियोंमेंसे आठ, और इनके विशेष भेदोंमेंसे चौदह लाख योनियां होती हैं ॥ २९५३ ॥ योनिप्रमाणका निरूपण समाप्त हुआ। मनुष्योंको एकसौ छब्बीस भोग भूमियोंमें ( ३० भोगभूमियों और ९६ कुभोगभूमियोंमें ) केवल सुख, और कर्मभूमियोंमें सुख एवं दुःख दोनों ही होते हैं ॥ २९५४ ॥ सुख-दुःखका वर्णन समाप्त हुआ। उन भूमियोंमें कितने ही मनुष्य प्रतिबोधनसे, कितने ही स्वभावसे, कितने ही बहुतप्रकारके सुख-दुःखको देखकर उत्पन्न हुए जातिस्मरणसे, कितने ही जिनेन्द्रभगवान्की कल्याणकादिरूप महिमाके दर्शनसे, और कितने ही जिनबिम्बके दर्शनसे औपशमादिक सम्यग्दर्शनोंको ग्रहण करते हैं ॥ २९५५-२९५६ ॥ सम्यक्त्वका कथन समाप्त हुआ। मनुष्यलोकमें मुक्तिगमनका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट दो-तीन समयादिसे लेकर छह मासपर्यन्त है। इसके पश्चात् आठ समयोंमें जीव सिद्धिको प्राप्त करते ही हैं ॥ २९५७ ॥ इन आठ समयोंमेंसे प्रत्येकमें क्रमशः उत्कृष्टरूपसे बत्तीस, अडतालीस, साठ, बहत्तर, चौरासी, छ्यानबै और अन्तिम दो समयोंमें एकसौ आठ एकसौ आठ जीव, तथा जघन्यरूपसे एक एक, सिद्ध होते हैं । मध्यम प्रतिपत्तिसे सब समयोंमें चौहत्तर चौहत्तर जीव सिद्ध होते हैं ॥ २९५८-२९५९ ॥ ५९२ ’ ८ = ७४ । १ द ब एदेण. २ द सुक्खं च. ३ द ब 'दुक्ख. ४ द ब पयारा. ५ द गिव्हंति. ६ द दुतियसमं ७ द ब जुगे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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