Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 523
________________ ४५६] तिलोयपण्णत्ती [४.२४९१ लोयविभायाइरिया दीवाण कुमाणुसेहिं जुत्ताणं । अण्णसरूवेण ठिदि भासते तं परूवेमो ॥ २४९१ पण्णाधियपंचसया गंतूर्ण जोयणाणि विदिसासुं । दीवा दिसासु अंतरदिसासु पण्णासपरिहीणा ॥ २४९२ ५५० । ५००। ५००। जोयणसयविक्खभा अंतरदीवा तहा दिसादीवा । पण्णा रुंदा विदिसादीवा पणुवीस सेलपणिधिगया ॥ २४९३ १००।१०। ५० । २५ । पुग्वं व गिरिपणिधिगदा छस्सयजोयणाणि चेटुंति'। एकोरुकवेसणिका लंगुलिका तह यभासगा तुरिमा। पुब्वादिसु वि दिसासु चउदीवाणं कुमाणुसा कमसो ॥२४९४ अणलादिसु विदिसासु ससकपणा ताण उभयपासेसुं । अटुंतरा य दीवा पुवग्गिदिसादिगणणिज्जा ॥ २४९५ पुवदिसट्रियएक्कोरुकाण अग्गिदिसट्टियससकण्णाणं विश्वालादिसु कमेण अटुंतरदीवट्टिदकुमाणुसणामाणि गणिदब्वा केसरिमुहा मगुस्सा चक्कुलिकण्णा अ चक्कुलीकण्णा । साणमुहा कपिवदणा चक्कुलिकण्णा भ चक्कुलीकण्णा ॥ २४९६ हयकण्णाई कमसो कुमाणुसा तेसु होति दीवेसुं । धूकमुहा कालमुद्दा हिमवंतगिरिस्स पुब्वपच्छिमदो ॥ २४९७ लोकविभागाचार्य कुमानुषोंसे युक्त उन द्वीपोंकी स्थिति भिन्नरूपसे बतलाते हैं। उसका निरूपण करते हैं ।। २४९१ ॥ ये द्वीप जम्बूद्वीपकी जगतीसे पांचसौ पचास योजन जाकर विदिशाओंमें और इससे पचास योजन कम अर्थात् केवल पांचसौ योजनमात्र जाकर दिशाओं व अन्तरदिशाओंमें स्थित हैं ।। २४९२ ॥ ५५० । ५००। ५०० । अन्तरदिशा तथा दिशागत द्वीपोंका विस्तार एकसौ योजन, विदिशाओंमें स्थित द्वीपोंका विस्तार पचास योजन और पर्वतोंके प्रणिधिभागोंमें रहनेवाले द्वीपोंका विस्तार पच्चीस योजनमात्र है ।। २४९३ ॥ १०० । १०० । ५० । २५ । ___ गिरिप्रणिधिगत द्वीप पूर्वके समान ही जम्बूद्वीपकी जगतीसे छहसौ योजन जाकर स्थित हैं। पूर्वादिक दिशाओंमें स्थित चार द्वीपोंके कुमानुष क्रमसे एक जंघावाले, सींगवाले, पूंछवाले और गूंगे होते हैं ॥ २४९४ ॥ आग्नेय आदिक विदिशाओंके चार द्वीपोंमें शशकर्ण कुमानुष होते हैं । उनके दोनों पार्श्वभागोंमें आठ अन्तरद्वीप हैं जो पूर्व-आग्नेयदिशादिके क्रमसे जानना चाहिये ।। २४९५ ॥ पूर्वदिशामें स्थित एकोरुक और अग्निदिशामें स्थित शशकर्ण कुमानुषोंके अंतराल आदिक अन्तरालोंमें क्रमसे आठ अन्तरद्वीपोंमें स्थित कुमानुषोंके नामोंको गिनना चाहिये-- इन अन्तरद्वीपोंमें क्रमसे केशरीमुख, शष्कुलिकर्ण, शष्कुलिकर्ण, श्वानमुख, वानरमुख, शष्कुलिकर्ण, शष्कुलिकर्ण और हयकर्ण कुमानुष होते हैं। हिमवान्पर्वतके पूर्व-पश्चिम-भागोंमें क्रमसे वे कुमानुष घूकमुख और कालमुख होते हैं ।। २४९६--२४९७ ॥ १ द ब ' पुव्वं व गिरिपणिधिगदा' इत्येव पाठः । २ द ब छस्सयजोयणाणिं चरंति अणिलादिसासु विदिसासु । ससकण्णा तणुभयपासेसु (ब तणुभयसेसुं) अट्ठ अंतरी दीवा ।। पुव्वग्गिदिसादिगणाणिजा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598