Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 532
________________ -४. २५७० ] उत्थो महाधियारो [ ४६५ आदिममज्झिमबाहिरपरिहिपमाणेसु सेलरुद्धखिदिं । सोधिय सेसद्वाणं सब्वाणं होदि विजयाणं ॥ २५६६ १४०२२९६ । १७ २६६७२०७ । १७ ३९३२११८ । १७ १९ १९ १९ एक्कचउसोलसंखा चउगुणिदा भट्ठवीसजुत्तसया । मेलिय तिविहसमासं हरिदे तिट्ठाणभर हविक्खंभा ॥ २५६७ २१२ । भरहादी विजयाणं बाहिररुंदेम्मि आदिमं रुंदं । सोहिय चउलक्खहिदे खयवढी इच्छिदपदेसे ॥ २५६८ छावहिं च सयाणि चोदसजुत्ताणि जोयणाणि कला । उणतीस उत्तरस्यं भरहस्सभंतरे वासो ॥ २५६९ ६६१४ । १२९ २१२ हेमद पहुदीर्ण पत्ते चउगुणो हवे वासो । जाव य विदेहवस्सो तप्परदो चउगुणा हाणी ॥ २५७० आदि, मध्य और बाह्य परिधिके प्रमाणमेंसे पर्वतरुद्ध क्षेत्रको कम करनेपर शेष स्थान सब क्षेत्रोंका होता है ।। २५६६ ॥ १५८११३९ - १७८८४२ हरे = १४०२२९६ १ ँ आदि । २८४६०५० १७८८४२ ह = २६६७२०७१ मध्य । ४११०९६१ १७८८४२१९ ३९३२११८१ ँ बाह्य | एक, चार और सोलह, इनकी चौगुणी संख्या के जोड़में एकसौ अट्ठाईसको मिलाने पर जो संख्या उत्पन्न हो उसका पर्वतरुद्ध क्षेत्रसे रहित उक्त तीन प्रकारके परिधिप्रमाण में भाग देने पर क्रमसे तीनों स्थानोंमें भरतक्षेत्रका विस्तारप्रमाण निकलता है || २५६७ ॥ १४०२२९६÷÷ ÷ ( ४ + १६+६४ + १२८ ) = ६६१४३१३ अभ्यंतर विस्तार । २६६७२०७१९ ÷ २१२ = १२५८१ र मध्यविस्तार | ३९३२११८÷÷ ÷ २१२ १८५४७३१५ बाह्यविस्तार | भरतादिक क्षेत्रोंके बाह्यविस्तारमेंसे आदिके विस्तारको कम करके शेषमें चार लाखका भाग देने पर इच्छित स्थानमें हानि-वृद्धिका प्रमाण आता है ।। २५६८ ॥ = (१८५४७३१३ - ६६१४३१२ ) = 800000 = 380331 छयासठसौ चौदह योजन और एक योजनके दोसौ बारह भागोंमेंसे एक सौ उनतीस भागमात्र भरतक्षेत्रका अभ्यन्तरविस्तार है || २५६९ || ६६१४ ३३३ । = विदेहक्षेत्र तक क्रमसे हैमवतादिक क्षेत्रोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार उत्तोरोत्तर इससे चौगुणा है । इससे आगे क्रमसे चौगुणी हानि होती गई है || २५७० ॥ 1 १ द कुंडम्मि, ब वाहिकुंदम्मि. २ द ब 'लक्खावहिदे. TP 59. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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