Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 548
________________ - ४. २६६६] चउत्थो महाधियारो - अट्रतियदोषिणबरणवपणअंककमेण चउवीसा | भागा मज्झिमदीहं पत्तेकं देवभूदरण्णाणं ॥ २६६१ ५९०२३८ । २४ २१२ सगदोणभतियणवपणकमसो अंका तहेव भागा य । सोलुत्तरसय अंतिमदीहं सुरभूदरण्णाणं॥२६६२२ ५९३०२७ । ११६ २१२ कच्छादिप्पमुहाणं तिवियप्पं सण्णिरूविदं सव्वं । विजयाण मंगलावदिपमुहाण कमेण वत्तवं ॥२६६३ कच्छादिसु विजयाणं आदिममज्झिल्लचरिमदीहत्ते । विजयद्धरुंदमवणिय अद्धकदे तस्स तस्स दीहत्तं ॥ २६६४ सोहसु मज्झिमसूई मेरुगिरि दुगुणभद्दसालवणं । सौ सूई पम्मादीपरियंतं मंगलावदिए ॥ २६६५ दोचउअडचउसगछज्जोयणआणिं कमेण तं वग्गं । दसगुणमूलं परिही अडतियणभचउतिएक्कदुगं ॥ २६६६ सई ६७४८४२ । परि २१३४०३८ । आठ, तीन, दो, शून्य, नौ और पांच, इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उतने योजन और चौबीस भाग अधिक देवारण्य व भूतारण्यमेंसे प्रत्येककी मध्यम लंबाई है ॥२६६१ ॥ __५८७४४८३१३ + २७८९३३३ = ५९०२३८३३३ । सात, दो, शून्य, तीन, नौ और पांच, इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन और एकसौ सोलह भाग अधिक देवारण्य व भूतारण्यकी अन्तिम लंबाई है ।। २६६२ ॥ ५९०२३८३२५ + २७८९३९३ = ५९३०२७३१६ । यह सब कच्छादिक देशोंकी तीन प्रकारसे लंबाई कही गई है। अब क्रमसे वह मंगलावती आदि देशोंकी कही जाती ह ॥ २६६३ ॥ कन्छादिक विजयोंकी आदिम, मध्यम और अन्तिम लंबाई मेंसे विजयार्द्धके विस्तारको कम करके शेषको आधा करनेपर उस उसकी लंबाईका प्रमाण होता है ॥ २६६४ ॥ __ धातकीखण्डकी मध्यसूचीमेंसे मेरुपर्वत और दुगुणे भद्रशालवनके विस्तारको घटा दो, तब वह शेष पद्मासे मंगलावतीदेश तककी सूची होती है ॥ २६६५ ।। ९००००० – ( ९४०० + २१५७५८ )= ६७४८४२ सूची । दो, चार, आठ, चार, सात और छह, इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने योजन रूप उपर्युक्त सूचीका प्रमाण है । इस सूचीप्रमाणका वर्ग करके उसको दशसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालनेपर उक्त सूचीकी परिधिका प्रमाण होता है, जो क्रमसे आठ, तीन, शून्य, चार, तीन, एक और दो अंकरूप है ॥२६६६ ॥ V६७४८४२२४ १० = २१३४०३८ परिधि । ३ द सो. १ ब दीहसुरभूदरण्णा. २ एषा गाथा द-प्रतौ नास्ति, TP. 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598