Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-१. २३५३]
चउत्थो महाधियारो
[४३९
रुम्मिगिरिंदस्सोवरि बहुमज्झे होदि पुंडरीयदहो । फुलंतकमलपउरो तिगिंछद्दहस्स परिमाणो ॥ २३४४ तहहकमलणिकेदे देवी णिवसेदि बुद्धिणामेण । तीए हवेदि अद्धो परिवारो कित्तिदेवीदो ॥२३४५ णिरुवमलावण्णतणू वररयणविभूसणेहिं रमणिजा । विविहविणोदाकीडण ईसाणिंदस्स सा देवी ॥ २३४६ तद्दहदक्खिणतोरणदारेणं णिग्गदा गई णारी । णारीणामे कुंडे णिवददि गंतूण थोवमुही' ॥ २३४७ तहक्खिणदारेणं णिस्सरिदूणं च दक्खिणमुही सा। पत्ता णाभिगिरिंदै कादूण पदाहिणं हरिणई वा ॥ २३४८ रम्मकभोगखिदीए बहुमज्झेणं पयादि पुध्वमुही । पविसेदि लवणजलहिं परिवारतरांगणीहि जुदा ॥ २३४९
। रुम्मिगिरिवण्णणा समत्ता। विजओ हेरण्णवदो हेमवदो व पवण्णणाजुत्तो। णवरि विसेसो एक्को दहणौमिणईण अण्णणामाणि ॥२३५० तस्स बहुमज्झभागे विजयड्ढो होदि गंधर्वतो त्ति । तस्सोवरिमणिकेदे पभासणामो ठिदो देवो ॥२३५१ पुंडरियदहाहिंतो उत्तरदारेण रुप्पकूलणई। णिस्सरिदूर्ण णिवददि कुंडे सा रुप्पकूलम्मि ॥ २३५२ तस्सुत्तरदारेणं णिस्सरिदूणं च उत्तरमुही सा । णाभिगिरि कादूर्ण पदाहिणं रोहिसरिय ब्व ॥ २३५३
रुक्मिपर्वतके ऊपर बहुमध्यभागमें फूले हुए प्रचुर कमलोंसे संयुक्त तिगिछद्रहके समान प्रमाणवाला पुण्डरीक द्रह है ॥ २३४४ ॥
उस द्रहसम्बन्धी कमल-भवनमें बुद्धि नामक देवी निवास करती है । इसका परिवार कीर्तिदेवीकी अपेक्षा आधा है ॥ २३४५॥
अनुपम लावण्यमय शरीरसे संयुक्त, उत्तम रत्नोंके भूषणोंसे रमणीय और विविधप्रकारके विनोदसे क्रीड़ा करनेवाली वह ईशानेन्द्रकी देवी है ॥ २३४६ ॥
___ उस द्रहके दक्षिणतोरणद्वारसे निर्गत नारी नदी स्तोकमुखी ( अल्प-विस्तार ) होकर नारीनामक कुण्डमें गिरती है ।। २३४७ ॥
__ पश्चात् वह कुण्डके दक्षिणतोरणद्वारसे निकलकर दक्षिणमुख होती हुई नाभिगिरिको पाकर और उसे हरित् नदीके समान ही प्रदक्षिण करके रम्यकभोगभूमिके बहुमध्यभागमेंसे पूर्वकी ओर जाती हुई परिवारनदियोंसे युक्त होकर लवणसमुद्रमें प्रवेश करती है ॥ २३४८-२३४९ ॥
रुक्मिपर्वतका वर्णन समाप्त हुआ। हैरण्यवतक्षेत्र हैमवतक्षेत्रके समान वर्णनसे युक्त है। विशेषता केवल एक यही है कि यहां द्रह, नाभिगिरि और नदियोंके नाम भिन्न हैं ॥ २३५० ॥
इस क्षेत्रके बहुमध्यभागमें गन्धवान् नामक विजयाई (नाभिगिरि) है। इसके ऊपर स्थित भवनमें प्रभास नामक देव रहता है ।। २३५१ ॥
पुण्डरीक द्रहके उत्तरद्वारसे वह रूप्यकूलानदी निकलकर रूप्यकूल नामक कुंडमें गिरती है ॥ २३५२ ॥
तत्पश्चात् वह इस कुण्डके उत्तरद्वारसे निकलकर उत्तरकी ओर गमन करती हुई रोहित्
१ द ब धोवमुही. २ द ब जुत्ता. ३ द वेणभीण, ब देवणामीण.
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