Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
४४८]
“तिलोयपण्णत्ती
[ ४.२४१५
णवणउदिसहस्साणि पंचसया जोयणाणि दुतडेसं। पुह पुह पविसिय सलिले पायाला मज्झिमा होति ॥ २४१५ ९९५००।
[२४१६-२४२५] जेटुंतरसंखादो एक्कसहस्साम्म समवणीदम्मि । भद्धकदे जेट्टाणं मझिमयाणं च विचालं ॥ २४२६ जोयणलक्खं तेरससहस्सया पंचसीदिसंजुत्ता । तं विश्वालपमाणं दिवढ्ढकोसेण अदिरित्तं ॥ २४२७
११३०८५ । को ३।
जेट्ठाण मज्झिमाणं विश्चम्मि जहण्णयाण मुहवासं । फेडिय सेसं विगुणियतेसट्टीए कयविभागे ॥ २४२८ जं लई अवराणं पायालाणं तमंतरं होदि । तं माणं सय सत्तय अट्ठाणउदी य सविसेसा ॥ २४२९
७९८। ३७ । ।
१२६ ३३६ पत्तेकं पायाला तिवियप्पा ते भवंति कमहीणं । हेट्राहिंतो वादं जलवादं सलिलमासेज ॥ २४३० तेत्तीससहस्साणि तिसया तेत्तीस जोयणतिभागो। पत्तेकं जेट्टाणं पमाणमेदं तियंसस्स ॥ २४३१
३३३३३ । ।
पृथक् पृथक् दोनों किनारोंसे निन्यानबै हजार पांचसौ योजनप्रमाण जलमें प्रवेश करनेपर मध्यम पाताल हैं ॥ २४१५ ।। ९९५०० ।
[२४१६-२४२५] ज्येष्ठ पातालोंके अन्तरालप्रमाणमेंसे एक हजार कम करके आधा करनेपर ज्येष्ठ और मध्यम पातालोंका अन्तरालप्रमाण निकलता है ।। २४२६ ॥
वह अन्तरालप्रमाण एक लाख तेरह हजार पचासी योजन और डेढ कोस अधिक है ॥ २४२७ ॥ (२२७१७०३ - १०००) * २ = यो. ११३०८५, को. ३ ।
ज्येष्ठ और मध्यम पातालोंके अन्तरालप्रमाणमेंसे जघन्य पातालोंके मुखविस्तारको कम करके शेषमें द्विगुणित तिरेसठ अर्थात् एकसौ छब्बीसका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना जघन्य पातालोंका अन्तराल होता है । उसका प्रमाण सातसौ अट्ठानबै योजनोंसे अधिक है ॥ २४२८ -२४२९ ।। ७९८३३४ + १ यो.।
- वे पाताल क्रमसे हीन होते हुए नीचेसे वायु, जल-वायु और जलके आश्रयसे तीन प्रकार हैं अर्थात् प्रत्येक पातालके तीन भागोंमेंसे पहिले भागमें वायु, दूसरे भागमें जल-वायु और तीसरे भागमें केवल जल ही स्थित है ॥ २४३० ॥ - ज्येष्ठ पातालोंमेंसे प्रत्येक पातालके तीसरे भागका प्रमाण तेतीस हजार तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनका तीसरा भाग है ॥ २४३१ ॥ ३३३३३३ ।
१ अत्र दश गाथा नष्टा इत्यनुमीयते । द-पुस्तके ' इ दस गाहा नथी' इति लिखितम् । ब-पुस्तके ' यहाँ दस गाथाए नही हैं' इति लिखितम् । २ ब विचम्मिद. ३ दब पेलिय.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org