Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 516
________________ -४. २४३९ | उत्थो महाधियारो [ ४४९ तिणि सहस्सा तिसया तेत्तीसजुदाणि जोयणतिभागो । पत्तेक्कं णादन्वं मज्झिमाणं तियंसपरिमाणं ॥ २४३२ ३३३३ । १ । ३ तेत्तीस भहियाई तिणि सयाणं च जोयणतिभागो । पत्तेक्कं दट्ठव्त्रं तियंसमोणं जहण्णाणं ॥ २४३३ ३३३ । १ । ३ लिम्मि तिभागे वसुमहविवराण केवलो वादो । मज्झिले जलवादो उवरिल्ले सलिलपब्भारो ॥ २४३४ पवणेण पुण्णियं तं चलाचलं मज्झिमं सलिलवादं । उवरिं चेट्ठदि सलिलं पवणाभावेण केवलं तेसुं ।। २४३५ पादालाणं मरुद पक्खे सीदम्मि वŚति । हीयंति किण्णपक्खे सहावदो सन्वकालेसुं ।। २४३६ बड्डी बावीससया बावीसा जोयणाणि भदिरेग । पर्वणे सिदपक्खे य प्पडिवास पुण्णिमं जाव ॥ २४३७ २२२२ । २ । ९ पुष्णिमए ट्ठादो नियणियदुतिभागमेत्तपायाले । चेट्ठदि वाऊ उवरिमतियभागे केवलं सलिलं ॥ २४३८ अमवस्से उवरीदे। नियणियदुतिभागमेत्तपरिमाणे । कमलो सलिलं हेट्ठिमतियभागे केवलं वादं ॥ २४३९ मध्यम पातालों में से प्रत्येकके तीसरे भागका प्रमाण तीन हजार तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनका तीसरा भागमात्र समझना चाहिये || २४३२ ॥ ३३३३३ । जघन्य पातालोंमेंसे प्रत्येकके तीसरे भागका प्रमाण तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनका तृतीय भागमात्र जानना चाहिये || २४३३ || ३३३ नीचे त्रिभाग में केवल वायु, मध्यम भागमें जल-वायु और ऊपरके भागमें जलसमूह स्थित है || २४३४ ॥ उनमें से पहिला भाग वायुसे युक्त, मध्यम भाग जल व वायुसे युक्त होता हुआ चलाचल अर्थात् जल और वायुकी हानि - वृद्धि से युक्त, और ऊपर वायुके न होनेसे केवल जल ही स्थित है || २४३५ ॥ पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षमें स्वभावसे बढ़ते हैं और कृष्णपक्षमें घटते हैं ॥ २४३६ ॥ शुक्ल पक्षमें पूर्णिमा तक प्रतिदिन बाईससौ बाईस योजनोंसे अधिक पवनकी वृद्धि हुआ करता है || २४३७ ॥ २२२२३ । पूर्णिमा के दिन पातालोंके अपने अपने तीन भागोंमेंसे नीचे के दो भागोंमें वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल स्थित रहता है ।। २४३८ ॥ अमावस्या के दिन अपने अपने तीन भागों में से क्रमशः ऊपर के दो भागों में जल और नीचेके तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है || २४३९ ॥ ३ द ब परिदा. १ द ब मज्झिमयं द ब तियंसमाणाणं. TP. 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only ४ द ब अदिरंगो. ५ द ब पवणो.. www.jainelibrary.org

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