Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
३७४ ]
तिलोय पण्णत्ती
[ ४. १७६८
चरवेदियाहिं जुत्ता वैतरणयरेहिं परमरमणिजा । एदे कूडा उत्तरपासे सलिलम्मि जिणकूडो' | १७६८ सिरिणिचयं वेरुलियं अंकमयं अंबरीयरुजगाई । सिहिरी उप्पलकूडो तिंगिच्छिदहस्स सलिलम्मैि ॥ तिंगिच्छादो दक्खिणदारेणं हरिणदी विणिक्कतौ । सत्तसहस्सं चउसयइगिवीसा इगिकला य गिरिउवरिं ।। १७७०
૧૦)
७४२१ । १ ।
१९
आगच्छिय हरिकुंडे" पडिऊणं हरिणदी विणिस्सरहे । णाभिपदाहिणेणं हरिवरिसे जादि पुण्यमुँही ॥ १७७१ छप्पण्णसहस्सेहि परिवारसमुद्दगाहि संजुत्ता । दीवस्स य जगदिबिलं पविसिय पविसेदि लवणणिहिं ।। १७७२
५६००० ।
हरिकंतासारिच्छा हरिणामावासगा हपहुदीभो । भोगवणीण नदीओ सरपहुदी जलयरविहीणा ॥ १७७३ । सिहो' गदो ।
णिसहस्त्तरभागे दक्खिणभागम्मि णीलवंतस्स । वरिसो महाविदेहो मंदरलेलेण पत्रित्तो ॥ १७७४ तेत्तीससहस्लाई छसया चउसीदिभा य चउभंसा । ता महविदेहरुंदं जोयणलक्खं च मज्झगदजीवा ॥ १७७५ ३३६८४ । ४ । १००००० | १९
ये कूट उत्तम वेदिकाओंसे सहित और व्यन्तरनगरोंसे अतिशय रमणीय हैं। उत्तरपार्श्वभागमें जलमें जिनकूट है | १७६८ ॥
तिछि तालाब के जलमें श्रीनिचय, वैडूर्य, अंकमय, अंबरीक ( अच्छरीय
=
रुचक, शिखरी और उत्पल कूट स्थित हैं । १७६९ ॥
तिगिंछ के दक्षिणद्वारसे निकलकर हरित् नदी सात हजार चार सौ इक्कीस योजन व एक कलाप्रमाण गिरिके ऊपर आकर और हरित् कुण्डमें गिरकर वहां से निकलती है तथा हरिवर्ष क्षेत्र में नाभिगिरिके प्रदक्षिणरूपसे पूर्व की ओर जाती है ॥ १७७०-१७७१ ॥
वह नदी छप्पन हजार परिवारनदियोंसे संयुक्त होकर द्वीपकी जगती के चिलमें प्रवेश करती हुई लवणसमुद्र से प्रवेश करती है ।। १७७२ ।। ५६००० ।
हरित नदीका विस्तार व गहराई आदि हरिकान्ता नदीके सदृश है । भोग भूमियोंकी नदियां और तालाब आदिक जलचर जीवोंसे रहित होते हैं || १७७३ ॥ निषधपर्वतका वर्णन समाप्त हुआ ।
निषेधपर्वत के उत्तरभागमें और नीलपर्वतके दक्षिणभाग में मन्दरपर्वतसे विभक्त महा
Jain Education International
आश्चर्य ),
विदेहक्षेत्र है ॥ १७७४ ॥
उस महाविदेहक्षेत्रका विस्तार तेतीस हजार छहसौ चौरासी योजन और चार भागप्रमाण, तथा मध्यगत जीवा एक लाख योजनप्रमाण है ।। १७७५ ।। ३३६८४ । १००००० ।
१ द ब जिणकूडा. २ द ब दहसलिलम्मि ३ द विदिक्कता. ४ द ब हरिकुडे. ५ द ब विणिस्सरओ. ६ द ब पुव्वमुहे ७ द वासग्राहि. ८ द ब णिसह.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org